बुधवार, 28 जुलाई 2021
नारद मोह की कथा
मंगलवार, 27 जुलाई 2021
श्री रामचरितमानस के सुंदरकांड का एक अनूठा प्रसंग
सोमवार, 26 जुलाई 2021
ईश्वर पर भरोसा रखे, वह अवश्य सही समय पर सबकुछ देगा
शुक्रवार, 23 जुलाई 2021
भगवान् श्रीराम के मृग का पीछा करने का सच
गुरुवार, 22 जुलाई 2021
राजा भर्तृहरि की कथा
बुधवार, 21 जुलाई 2021
जीवन का मूल्य क्या है?
मंगलवार, 20 जुलाई 2021
संचित कर्मो का फल
एक दिन एक राजा ने अपने 3 मन्त्रियो को दरबार में बुलाया, और तीनो को आदेश दिया के एक एक थैला ले कर बगीचे में जाएं और वहां से अच्छे अच्छे फल (fruits ) जमा करें वो तीनो अलग अलग बाग़ में प्रविष्ट हो गए पहले मन्त्री ने कोशिश की के राजा के लिए उसकी पसंद के अच्छे अच्छे और मज़ेदार फल जमा किए जाएँ , उस ने काफी मेहनत के बाद बढ़िया और ताज़ा फलों से थैला भर लिया।
दूसरे मन्त्री ने सोचा राजा हर फल का परीक्षण तो करेगा नहीं , इस लिए उसने जल्दी जल्दी थैला भरने में ताज़ा , कच्चे , गले सड़े फल भी थैले में भर लिए तीसरे मन्त्री ने सोचा राजा की नज़र तो सिर्फ भरे हुवे थैले की तरफ होगी वो खोल कर देखेगा भी नहीं कि इसमें क्या है , उसने समय बचाने के लिए जल्दी जल्दी इसमें घास , और पत्ते भर लिए और वक़्त बचाया।
दूसरे दिन राजा ने तीनों मन्त्रियो को उनके थैलों समेत दरबार में बुलाया और उनके थैले खोल कर भी नही देखे और आदेश दिया कि , तीनों को उनके थैलों समेत दूर स्थान के एक जेल में ३ महीने क़ैद कर दिया जाए।
अब जेल में उनके पास खाने पीने को कुछ भी नहीं था सिवाए उन थैलों के तो जिस मन्त्री ने अच्छे अच्छे फल जमा किये वो तो मज़े से खाता रहा और 3 महीने गुज़र भी गए।
फिर दूसरा मन्त्री जिसने ताज़ा , कच्चे गले सड़े फल जमा किये थे, वह कुछ दिन तो ताज़ा फल खाता रहा फिर उसे ख़राब फल खाने पड़े , जिस से वो बीमार होगया और बहुत तकलीफ उठानी पड़ी और तीसरा मन्त्री जिसने थैले में सिर्फ घास और पत्ते जमा किये थे वो कुछ ही दिनों में भूख से मर गया अब आप अपने आप से पूछिये कि आप क्या जमा कर रहे हो ??
आप इस समय जीवन के बाग़ में हैं , जहाँ चाहें तो अच्छे कर्म जमा करें .. चाहें तो बुरे कर्म , कोई देखने वाला नही, सिवाय भगवान के मगर याद रहे जो आप जमा करेंगे वही आपको आखरी समय काम आयेगा क्योंकि दुनिया क़ा राजा आपको चारों ओर से देख रहा है ।
जय जय श्री राधे कृष्ण जी
भक्त कुम्हार और श्री कृष्ण की कथा
एक बार की बात है कि यशोदा मैया प्रभु श्री कृष्ण के उलाहनों से तंग आ गई और छड़ी लेकर श्री कृष्ण की ओर दौड़ी। जब प्रभु ने अपनी मैया को क्रोध में देखा तो वह अपना बचाव करने के लिए भागने लगे।भागते-भागते श्री कृष्ण एक कुम्हार के पास पहुंचे। कुम्हार तो अपने मिट्टी के घड़े बनाने में व्यस्त था। लेकिन जैसे ही कुम्हार ने श्री कृष्ण को देखा तो वह बहुत प्रसन्न हुआ। कुम्हार जानता था कि श्री कृष्ण साक्षात् परमेश्वर हैं। तब प्रभु ने कुम्हार से कहा कि 'कुम्हार जी, आज मेरी मैया मुझ पर बहुत क्रोधित है। मैया छड़ी लेकर मेरे पीछे आ रही है। भैया, मुझे कहीं छुपा लो।
तब कुम्हार ने श्री कृष्ण को एक बडे से मटके के नीचे छिपा दिया। कुछ ही क्षणों में मैया यशोदा भी वहां आ गईं और कुम्हार से पूछने लगी - 'क्यूं रे,कुम्हार! तूने मेरे कन्हैया को कहीं देखा है, क्या?'
कुम्हार ने कह दिया - 'नहीं, मैया ! मैंने कन्हैया को नहीं देखा।' श्री कृष्ण यह सब बातें बड़े से घड़े के नीचे छुपकर सुन रहे थे। मैया तो वहां से चली गयीं।अब प्रभु श्री कृष्ण कुम्हार से कहते हैं - 'कुम्हार जी, यदि मैया चली गई हो तो मुझे इस घड़े से बाहर निकालो।' कुम्हार बोला - 'ऐसे नहीं, प्रभु जी ! पहले मुझे चौरासी लाख यानियों के बन्धन से मुक्त करने का वचन दो।'
भगवान मुस्कुराये और कहा - 'ठीक है, मैं तुम्हें चौरासी लाख योनियों से मुक्त करने का वचन देता हूं। अब तो मुझे बाहर निकाल दो।'
कुम्हार कहने लगा - 'मुझे अकेले नहीं, प्रभु जी ! मेरे परिवार के सभी लोगों को भी चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त करने का वचन दोगे तो मैं आपको इस घड़े से बाहर निकालूंगा।'प्रभु जी कहते हैं - 'चलो ठीक है, उनको भी चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त होने का मैं वचन देता हूं। अब तो मुझे घड़े से बाहर निकाल दो।अब कुम्हार कहता है - 'बस, प्रभु जी ! एक विनती और है। उसे भी पूरा करने का वचन दे दो तो मैं आपको घड़े से बाहर निकाल दूंगा।'
भगवान बोले - 'वो भी बता दे, क्या कहना चाहते हो ?'
कुम्हार कहने लगा - 'प्रभु जी ! जिस घड़े के नीचे आप छुपे हो, उसकी मिट्टी मेरे बैलों के ऊपर लाद के लाई गई है । मेरे इन बैलों को भी चौरासी के बन्धन से मुक्त करने का वचन दो ।'भगवान ने कुम्हार के प्रेम पर प्रसन्न होकर उन बैलों को भी चौरासी के बन्धन से मुक्त होने का वचन दिया ।'
प्रभु बोले - 'अब तो तुम्हारी सब इच्छा पूरी हो गई, अब तो मुझे घड़े से बाहर निकाल दो।'
तब कुम्हार कहता है - 'अभी नहीं, भगवन ! बस, एक अन्तिम इच्छा और है । उसे भी पूरा कर दीजिए और वह यह है - जो भी प्राणी हम दोनों के बीच के इस संवाद को सुनेगा, उसे भी आप चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त करोगे । बस, यह वचन दे दो तो मैं आपको इस घड़े से बाहर निकाल दूंगा।'
कुम्हार की प्रेम भरी बातों को सुन कर प्रभु श्री कृष्ण बहुत खुश हुए और कुम्हार की इस इच्छा को भी पूरा करने का वचन दिया ।
फिर कुम्हार ने बाल श्री कृष्ण को घड़े से बाहर निकाल दिया। उनके चरणों में साष्टांग प्रणाम किया। प्रभु जी के चरण धोए और चरणामृत लिया। अपनी पूरी झोपड़ी में चरणामृत का छिड़काव किया और प्रभु जी के गले लगकर इतना रोये क़ि प्रभु में ही विलीन हो गए।
जरा सोचें, जो बाल श्री कृष्ण सात कोस लम्बे-चौड़े गोवर्धन पर्वत को अपनी इक्क्नी अंगुली पर उठा सकते हैं, तो क्या वो एक घड़ा नहीं उठा सकते थे।
लेकिन बिना प्रेम रीझे नहीं नटवर नन्द किशोर। कोई कितने भी यज्ञ करे, अनुष्ठान करे, कितना भी दान करे, चाहे कितनी भी भक्ति करे, लेकिन जब तक मन में प्राणी मात्र के लिए प्रेम नहीं होगा, प्रभु श्री कृष्ण मिल नहीं सकते।
जय श्री राधे कृष्णा
राम से बड़ा राम का नाम क्यों..?
रामदरबार में हनुमानजी महाराज श्री रामजी की सेवा में इतने तन्मय हो गए कि गुरू वशिष्ठ के आने का उनको ध्यान ही नहीं रहा, सबने उठ कर उनका अभिवादन किया लेकिन हनुमानजी नहीं कर पाए।
वशिष्ठ जी ने श्री रामजी से कहा कि राम गुरु का भरे दरबार में अभिवादन नहीं कर अपमान करने पर क्या सजा होनी चाहिए?
श्री रामजी ने कहा गुरुवर आप ही बताएं
वशिष्ठ जी ने कहा:- "मृत्यु दण्ड"
श्रीराम जी ने कहा:- स्वीकार है
तब श्रीराम जी ने कहा:- गुरुदेव आप बताएं कि यह अपराध किसने किया है..
बता दूंगा पर "राम" वो तुम्हारा इतना प्रिय है कि, तुम अपने आप को सजा दे दोगे पर उसको नहीं दे पाओगे
श्रीराम जी ने कहा:- गुरुदेव,राम के लिए सब समान हैं, मैंने सीता जैसी पत्नी का सहर्ष त्याग धर्म के लिए कर दिया....फिर भी आप संशय कर रहे हैं..
नहीं, "राम"! मुझे तुम्हारे उपर पर संशय नहीं है पर, मुझे दण्ड के परिपूर्ण होने पर संशय है.... अत:यदि तुम यह विश्वास दिलाते हो कि,तुम स्वयं उसे मृत्यु दण्ड अपने अमोघ बाण से दोगे तो ही मैं अपराधी का नाम और अपराध बताऊंगा
श्रीराम जी ने पुन: अपना संकल्प व्यक्त कर दिया।
तब वशिष्ठ जी ने बताया कि यह अपराध हनुमान जी ने किया है
हनुमानजी ने भी स्वीकार कर लिया।
तब दरबार में रामजी ने घोषणा की कि कल सांयकाल सरयु के तट पर,हनुमानजी को में स्वयं अपने अमोघ बाण से मृत्यु दण्ड दूंगा
हनुमानजी के घर जाने पर उदासी की अवस्था में माता अंजनी ने देखा तो चकित रह गई कि मेरा लाल महावीर, अतुलित बल का स्वामी, ज्ञान का भण्डार, आज इस अवस्था में।
माता ने बार बार पुछा, पर जब हनुमान चुप रहें तो माता ने अपने दूध का वास्ता देकर पूछा।
तब हनुमानजी ने बताया कि, यह प्रकरण हुआ है अनजाने में...
माता! आप जानती हैं कि हनुमान को संपूर्ण ब्रह्माण्ड में कोई नहीं मार सकता, पर भगवान श्रीराम के अमोघ बाण से भी कोई बच भी नहीं सकता l
तब "माता" ने कहा:- हनुमान,मैंने भगवान शंकर से, "राम" मंत्र (नाम) प्राप्त किया था ,और तुम्हें भी जन्म के साथ ही यह नाम घुटी में पिलाया।
जिसके प्रताप से तुमने बचपन में ही सूर्य को फल समझ मुख में ले लिया था,उस राम नाम के होते हुए हनुमान कोई भी तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकता,चाहे वो राम स्वयं ही क्यों ना हों।
राम नाम की शक्ति के सामने राम की शक्ति और राम के अमोघ शक्तिबाण की शक्तियां महत्वहीन हो जाएंगी। जाओ मेरे लाल,अभी से सरयु के तट पर जाकर राम नाम का उच्चारण करना आरंभ करदो।
माता के चरण छूकर हनुमानजी,सरयु किनारे राम राम राम राम रटने लगे।
सांयकाल,राम अपने सम्पूर्ण दरबार सहित सरयु तट आए....
सबको कोतूहल था कि क्या राम हनुमान को सजा देंगे..
लेकिन जब श्रीराम ने बार बार रामबाण,अपने महान शक्तिधारी,अमोघशक्ति बाण चलाए पर हनुमानजी के ऊपर उनका कोई असर नहीं हुआ तो गुरु वशिष्ठ जी ने शंका जताई:-
राम क्या तुम अपनी पुर्ण निष्ठा से बाणों का प्रयोग कर रहे हो।
तब श्रीराम ने कहा:- हां गुरूदेव, मैं गुरु के प्रति अपराध की सजा देने को अपने बाण चला रहा हूं,उसमें किसी भी प्रकार की चतुराई करके मैं कैसे वही अपराध कर सकता हूं।
तो तुम्हारे बाण अपना कार्य क्यों नहीं कर रहे हॆ
तब श्रीराम ने कहा:- गुरुदेव हनुमान राम राम राम की अंखण्ड रट लगाये हुए है,मेरी शक्तिंयों का अस्तित्व राम नाम के प्रताप के समक्ष महत्वहीन हो रहा है।
इससे मेरा कोई भी प्रयास सफल नहीं हो रहा है,आप ही बताएं गुरु देव ! मैँ क्या करुं।
गुरु देव ने कहा:- हे राम! आज से मैं तुम्हारे साथ तुम्हारे दरबार को त्याग कर,अपने आश्रम जा रहा हूं जहां राम नाम का निरंतर जप करुंगा
जाते -जाते, गुरुदेव वशिष्ठ जी ने घोषणा की....
हे राम ! मैं जानकर,मानकर,यह घोषणा कर रहा हूं कि स्वयं राम से राम का नाम बडा़ है,राम नाम महाअमोघशक्ति का सागर है।
जो कोई जपेगा,लिखेगा,मनन करेगा,उसकी लोक कामनापूर्ति होते हुए भी,वो मोक्ष का भागी होगा।
मैंने सारे मंत्रों की शक्तियों को राम नाम के समक्ष न्युनतर माना है।
तभी से राम से बडा राम का नाम माना जाता है,वो पत्थर भी तैर जातें है जिन पर श्रीराम का नाम लिखा रहता है।
मेरे प्रभु मेरे श्रीराम
सोमवार, 19 जुलाई 2021
राधारानी जी का पान बीड़ा
तीन साधू थे, यात्रा कर रहे थे यमुना किनारे.!
उसमें तीसरा साधू जो था वो बुढ़ा था, वृद्ध था, उसने कहा "भई हम इस गाँव के बाहर इस मन्दिर में आसन लगा के यहीं रहेंगे,
तुम तो जवान हो, तुम भले जाओ".! तो दो जवान साधू आगे गये!
चलते- चलते संध्या हो गयी दोनों साधुओ ने सोचा अब बरसाना आ रहा है, राधा रानी का गाँव, क्या करेंगे ? मांगेंगे कहाँ ?
बोले मांगना कहाँ अपन तो राधा रानी के मेहमान हैं, खिलाएगी तो खा लेंगे नही तो मन्दिर में आरती के समय कहीं कुछ प्रसाद मिलेगा वो खा के पानी पी लेंगे.!
साधुओ ने मजाक- मजाक में कहा, वो साधू पहुंच गये बरसाना और बरसाना में तो आरती हुई, मन्दिर में उत्सव भी हुआ था.!
साधू बाबा बोले मांगेगें तो नही अपने तो राधा रानी के मेहमान है.! ऐसे करके साधू सो गये.! रात के ११ बजे राधा रानी मंदिर के पुजारी को राधा रानी ने ऐसा जगाया।
राधा रानी बोली "महेमान हमारे भूखे है, तू सो रहा है".!
अरे भई महेमान कौन है.?
दो साधू...
पुजारी के तो होश हवास उड़ गये, ये पुजारी उठे, सोये हुए साधुओ को उठाया "तुम, तुम राधा रानी के मेहमान हो क्या ?
साधु बोले "नही हम तो ऐसे ही,
पुजारी बोले "नही आप बैठो" हाथ-पैर धोये, पत्तले लाये और अच्छे से अच्छा जो राधा रानी के मन्दिर का प्रसाद था,
उत्सव का प्रसाद था जो भी था, लड्डू, रसगुल्ले, खीर-वीर बस टनाटन पक्की रसोई जिमाई.!
वो साधू थोडा टहल के बोले "राधा रानी हमने तो मज़ाक में कहा था तुमने सचमुच में हमको मेहमान बना लिया माँ" हे राधे मैया...
साधू राधा जी का चिंत्तन करते-करते सो गये, तो दोनों साधुओ को एक जैसा सपना आया.!
वो १२ साल की राधा रानी बोलती है, साधू बाबा भोजन तो कर लिया आपने, तृप्त तो हो गये, भूख तो मिट गयी ?
बोले "हाँ,
भोजन अच्छा तो रहा ?
बोले "हाँ,
भोजन, जल आपको सुखद लगे?
बोले "हाँ,
अब कोई और आवश्यकता है क्या ?
बोले "नही-नही मैया
राधा रानी बोली "देखो वो पुजारी डरा-डरा तुमको भोजन तो कराया लेकिन मेरा पान-बीड़े का प्रसाद देना भूल गया,
लो ये मैं पान-बीड़ा देती हूँ आपको.! ऐसा कहकर उसने सिरहाने पर रखा.!
सपने में देख रहे हैं के राधा रानी सिरहाने पान- बीड़ा रख रही हो ऐसा करके उनकी आँख खुल गयी.!
देखा तो सचमुच में पान- बीड़ा दोनों साधुओ के सिरहाने पड़ा है।
जय जय श्री राधे
शुक्रवार, 16 जुलाई 2021
भगवान को क्यों लेना पडा मत्स्य अवतार ?
एक दूसरी मन्यता के अनुसार एक राक्षस ने जब वेदों को चुरा कर सागर की अथाह गहराई में छुपा दिया, तब भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारण करके वेदों को प्राप्त किया और उन्हें पुनः स्थापित किया।
एक बार ब्रह्माजी की असावधानी के कारण एक बहुत बड़े दैत्य ने वेदों को चुरा लिया। उस दैत्य का नाम हयग्रीव था। वेदों को चुरा लिए जाने के कारण ज्ञान लुप्त हो गया। चारों ओर अज्ञानता का अंधकार फैल गया और पाप तथा अधर्म का बोलबाला हो गया। तब भगवान विष्णु ने धर्म की रक्षा के लिए मत्स्य रूप धारण करके हयग्रीव का वध किया और वेदों की रक्षा की। भगवान ने मत्स्य का रूप किस प्रकार धारण किया।
कल्पांत के पूर्व एक पुण्यात्मा राजा तप कर रहा था। राजा का नाम सत्यव्रत था। सत्यव्रत पुण्यात्मा तो था ही, बड़े उदार हृदय का भी था। प्रभात का समय था। सूर्योदय हो चुका था। सत्यव्रत कृतमाला नदी में स्नान कर रहा था। उसने स्नान करने के पश्चात जब तर्पण के लिए अंजलि में जल लिया, तो अंजलि में जल के साथ एक छोटी-सी मछली भी आ गई।
सत्यव्रत ने मछली को नदी के जल में छोड़ दिया। मछली बोली- राजन! जल के बड़े-बड़े जीव छोटे-छोटे जीवों को मारकर खा जाते हैं। अवश्य कोई बड़ा जीव मुझे भी मारकर खा जाएगा। कृपा करके मेरे प्राणों की रक्षा कीजिए।
सत्यव्रत के हृदय में दया उत्पन्न हो उठी। उसने मछली को जल से भरे हुए अपने कमंडलु में डाल लिया। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। एक रात में मछली का शरीर इतना बढ़ गया कि कमंडलु उसके रहने के लिए छोटा पड़ने लगा।
दूसरे दिन मछली सत्यव्रत से बोली- राजन! मेरे रहने के लिए कोई दूसरा स्थान ढूंढ़िए, क्योंकि मेरा शरीर बढ़ गया है। मुझे घूमने-फिरने में बड़ा कष्ट होता है। सत्यव्रत ने मछली को कमंडलु से निकालकर पानी से भरे हुए मटके में रख दिया।
यहाँ भी मछली का शरीर रात भर में ही मटके में इतना बढ़ गया कि मटका भी उसके रहने कि लिए छोटा पड़ गया। दूसरे दिन मछली पुनः सत्यव्रत से बोली- राजन! मेरे रहने के लिए कहीं और प्रबंध कीजिए, क्योंकि मटका भी मेरे रहने के लिए छोटा पड़ रहा है।
तब सत्यव्रत ने मछली को निकालकर एक सरोवर में डाल किया, किंतु सरोवर भी मछली के लिए छोटा पड़ गया। इसके बाद सत्यव्रत ने मछली को नदी में और फिर उसके बाद समुद्र में डाल दिया। Mann Mandir YouTube channel
आश्चर्य! समुद्र में भी मछली का शरीर इतना अधिक बढ़ गया कि मछली के रहने के लिए वह छोटा पड़ गया। अतः मछली पुनः सत्यव्रत से बोली- राजन! यह समुद्र भी मेरे रहने के लिए उपयुक्त नहीं है। मेरे रहने की व्यवस्था कहीं और कीजिए।
अब सत्यव्रत विस्मित हो उठा। उसने आज तक ऐसी मछली कभी नहीं देखी थी। वह विस्मय-भरे स्वर में बोला- मेरी बुद्धि को विस्मय के सागर में डुबो देने वाले आप कौन हैं?
मत्स्य रूपधारी श्रीहरि ने उत्तर दिया- राजन! हयग्रीव नामक दैत्य ने वेदों को चुरा लिया है। जगत में चारों ओर अज्ञान और अधर्म का अंधकार फैला हुआ है।
मैंने हयग्रीव को मारने के लिए ही मत्स्य का रूप धारण किया है। आज से सातवें दिन पृथ्वी प्रलय के चक्र में फिर जाएगी। समुद्र उमड़ उठेगा। भयानक वृष्टि होगी। सारी पृथ्वी पानी में डूब जाएगी। जल के अतिरिक्त कहीं कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होगा। आपके पास एक नाव पहुँचेगी।
आप सभी अनाजों और औषधियों के बीजों को लेकर सप्त ऋषियों के साथ नाव पर बैठ जाइएगा। मैं उसी समय आपको पुनः दिखाई पड़ूँगा और आपको आत्मतत्त्व का ज्ञान प्रदान करूँगा। सत्यव्रत उसी दिन से हरि का स्मरण करते हुए प्रलय की प्रतीक्षा करने लगे। सातवें दिन प्रलय का दृश्य उपस्थित हो उठा।
समुद्र भी उमड़कर अपनी सीमाओं से बाहर बहने लगा। भयानक वृष्टि होने लगी। थोड़ी ही देर में सारी पृथ्वी पर जल ही जल हो गया। संपूर्ण पृथ्वी जल में समा गई। उसी समय एक नाव दिखाई पड़ी। सत्यव्रत सप्त ऋषियों के साथ उस नाव पर बैठ गए। उन्होंने नाव के ऊपर संपूर्ण अनाजों और औषधियों के बीज भी भर लिए।
नाव प्रलय के सागर में तैरने लगी। प्रलय के उस सागर में उस नाव के अतिरिक्त कहीं भी कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। सहसा मत्स्य रूपी भगवान प्रलय के सागर में दिखाई पड़े।
सत्यव्रत और सप्त ऋषि गण मतस्य रूपी भगवान की प्रार्थना करने लगे भगवान से आत्मज्ञान पाकर सत्यव्रत का जीवन धन्य हो उठा। वे जीते जी ही जीवन मुक्त हो गए। प्रलय का प्रकोप शांत होने पर मत्स्य रूपी भगवान ने हयग्रीव को मारकर उससे वेद छीन लिए।
भगवान ने ब्रह्माजी को पुनः वेद दे दिए। इस प्रकार भगवान ने मत्स्य रूप धारण करके वेदों का उद्धार तो किया ही, साथ ही संसार के प्राणियों का भी अमित कल्याण किया।
जय श्री हरि
श्री गोवर्धन नाथ जी कथा
फिर क्या था गोवर्धन को अपना मनोरथ पूर्ण होते दीखा।
जैसे ही वे वर्तमान ब्रज भूमि के निकट पहुंच ने वाले थे कि गोवर्धन ने अपना भार बढ़ा दिया इस कारण ऋषि को लघुशंका का वेग सताने लगा और वो उस समय अपनी प्रतिज्ञा भूल गये, उन्होंने ने गोवर्धन को वहां रखकर लघुशंका निवृत्ति ,शुद्धि उपरान्त गोवर्धन को पुन: उठाने का प्रयास किया। किन्तु गोवर्धन प्रतिज्ञा स्मरण कराके किंचित मात्र भी हिलने को तैयार न हुए, ऋषि ने बहुत मनुहार की,सारे प्रयत्न असफल होने पर ऋषि ने क्रोधित हो प्रति दिन तिल के बराबर घटने का श्राप दे दिया।
श्री कृष्ण के परम भक्त ने उसे सादर स्वीकार कर लिया।
तदुपरान्त बहुत समय पश्चात् भगवान राम के द्वारा जब समुद्र पर सेतु निर्माण हो रहा था, बहुत से पर्वतों लाया जा रहा था, तब श्री हनुमानजी ने गोवर्धन के मना करने पर यह कह कर इस पर्वत को उखाड़ लिया कि तुम्हें मैं भगवान के साक्षात् दर्शन कराऊंगा किन्तु तभी उनको संदेश मिला कि सेतु निर्माण का कार्य पूर्ण चुका है अब और पर्वतों की आवश्यकता नहीं,तो उन्होंने गोवर्धन को पुनः वहीं स्थापित कर दिया।
किन्तु गोवर्धन ने उनकी पूंछ पकड़ कर उन्हें रोक लिया( वही श्रीहनुमान जी का स्वरूप आज "पूंछरी लौठा रूप में विद्यमान है) और कहा- आपके वचन का क्या हुआ , मुझे भगवान् के साक्षात् दर्शन कैसे कराओगे ?
तब हनुमानजी ने भगवान राम से अपने वचन मिथ्या होने की समस्या कही।
प्रभु श्रीराम ने कहा कि गोवर्धन को मेरा संदेश दे दो कि मैं द्वापर युग में उनकी श्रीकृष्ण रूप में ये कामना अवश्य पूर्ण करूंगा।
ऐसे हैं भगवद्भक्त,कृष्ण स्वरूप श्री गोवर्धन नाथ जी जिन्होंने प्रभु सांनिध्य प्राप्ति हेतु युगों- युगों तक प्रतीक्षा, तपस्या की।
"श्री गोवर्धन नाथ की जय"
गुरुवार, 15 जुलाई 2021
श्रीराम के बालरूप के दर्शन के लिए शंकरजी की मदारी-वानर लीला!
श्री हरि के वाहन गरुड़जी की रोचक कथा!
बुधवार, 14 जुलाई 2021
क्या हुआ जब भगवान भोलेनाथ ने अपने पांचों त्रिनेत्र एकसाथ खोल दिए?
धन कितना आयेगा पता नहीं पर घर में कभी गरीबी नहीं आयेगी
जानिए भगवान शिव के गले में लिपटे नाग का नाम और अन्य रहस्य क्या है?
भगवान जगन्नाथ के महाप्रसाद की कथा
अधिकांशतः लोग सोचते हैं कि भगवान का महाप्रसाद सदा सदा से इस संसार में मिलता आया है। परन्तु नीचे वर्णित लीला से पहले भगवान विष्णु का महाप्रसाद इस भौतिक संसार में उपलब्ध नहीं था , शिवजी तथा नारदमुनी जैसे ऋषियों के लिए भी नहीं। फिर कैसे महाप्रसाद इस संसार में आया ? इस सम्बन्ध में चैतन्य मंगल में एक कथा आती है।
एक दिन कैलाश पर्वत पर नारदमुनी की भेंट शिवजी से हुई। नारद मुनि उन्हें भगवान श्री कृष्ण और उद्धव के बीच वार्तालाप का वर्णन करने लगे। इस चर्चा में उद्धव भगवान के महाप्रसाद की महिमा गान करते हुए कहते हैं –
“ हे भगवन! आपकी महाप्रसादी माला, सुगन्धित तेल , वस्त्रों और आभूषणों और आपके उच्छिष्ठ भोजन की स्वीकार करने से आपके भक्त आपकी मायाशक्ति पर विजय प्राप्त कर लेते है। “
“ हे कैलाशपति !” नारदमुनी ने आगे कहना जारी रखा , “ यह सुनकर मेरे ह्रदय में भगवान् विष्णु का महाप्रसाद चखने की तीव्र उत्कंठा जागृत हुई है। इस आशा से मैं वैकुण्ठ गया और जी जान से माता लक्ष्मी की सेवा करने लगा। बारह वर्षों तक सेवा करने के पश्चात् एक दिन लक्ष्मी जी ने मुझसे पुछा, ‘ नारद ! मै तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूँ। तुम मनचाहा वर मांग सकते हो। “
नारदजी ने हाथ जोड़कर कहा, “ हे माता ! चिरकाल से मेरा ह्रदय एक बात को लेकर पीड़ित है। मैंने आजतक कभी भगवान नारायण के महाप्रसाद का अस्वादन नहीं किया है। कृपया मेरी यह अभिलाषा पूरी कर दीजिये।“
लक्ष्मी देवी दुविधा में पड़ गई। “ लेकिन नारद , मेरे स्वामी ने मुझे कठोर निर्देश दिए है कि उनका महाप्रसाद किसी को भी न दिया जाए। मैं उनकी आज्ञा का उल्लंघन कैसे कर सकती हूं। परन्तु तुम्हारे लिए मैं अवश्य कुछ व्यवस्था करूंगी। “
कुछ समय पश्चात् लक्ष्मी देवी ने भगवान नारायण से अपने ह्रदय की बात कही की कैसे उन्होंने गलती से नारदमुनी को भगवान का महाप्रसाद देने का वचन दे दिया है। भगवान् नारायण ने कहा, “ हे प्रिये! तुम्हे बड़ी भरी गलती की है। परन्तु अब क्या किया जा सकता है। तुम नारदमुनी को मेरा महाप्रसाद दे सकती हो , परन्तु मेरी अनुपस्थिति में। “(इसीलिए भक्तों को भी प्रसाद कभी भी अर्चा विग्रह के सामने बैठकर ग्रहण नहीं करना चाहिए)"
नारदमुनी ने आगे कहा, “ हे महादेव , आप विश्वास नहीं करेंगे , महाप्रसाद के मात्र स्पर्श से मेरा तेज और अध्यात्मिक शक्ति सौ गुना बढ़ गईं। मैं दिव्य भाव का अनुभव करने लगा और सुनाने यहाँ आया हूँ । ”
“ हे नारद ! निश्चित ही तुम्हारा तेज अलौकिक है परन्तु तुमने ऐसे दुर्लभ महाप्रसाद का एक कण भी मेरे लिए नहीं रखा।
लज्जित होकर नारद मुनी ने अपना सर झुका लिया परन्तु अभी उन्हें स्मरण हुआ की उनके पास अभी भी थोडा महाप्रसाद बचा हुआ है। उन्होंने तुरंत उसे महादेव को दिया जिसे उन्होंने अत्यंत सम्मानपूर्वक स्वीकार कर लिया।
उसे लेते ही शिवजी कृष्ण प्रेम में मदोंन्मत होकर नृत्य करने लगे। उनकी थिरकन से पृथ्वी कम्पायमान होने लगी और सम्पूर्ण ब्रम्हांड में खतरा महसूस किया जाने लगा तब भयभीत होकर माता पृथ्वी देवी पार्वती से महादेव को शांत करने का निवेदन करती हैं। जैसे तैसे माता पार्वती ने शिवजी को शांत किया और फिर उनसे इस उन्मत नृत्य करने का कारण जानना चाहा तो शिवजी ने कहा – देवी मेरे सौभाग्य की बात सुनो और सारा वृतांत सुना दिया और अंत में बोले आज भगवान का महाप्रसाद प्राप्त करके मैं उन्मत हो गया यही मेरे असामान्य भाव और तेज का कारण है। तभी माता पर्वती क्रुद्ध हो गईं और बोली – स्वामी आपको महाप्रसाद मुझे भी देना चाहिए था क्या आप नहीं जानते मेरा नाम वैष्णवी है आज मैं प्रतिज्ञा लेती हूं कि यदि भगवान नारायण मुझ पर अपनी करुणा दिखायेंगे तो मैं प्रयास करुँगी की उनका महाप्रसाद ब्रम्हांड के प्रत्येक व्यक्ति, देवता और यहां तक की कुत्तों बिल्लियों को भी प्राप्त होगा।
आश्चर्य जनक रूप से उसी क्षण भगवान विष्णु माता पर्वती के वचन की रक्षा हेतु वहां तत्क्षण प्रकट हुए और बोले – “ हे देवी पर्वती ! तुम सदैव मेरी भक्ति में संलग्न रहती हो। उमा और महादेव मेरे शरीर से अभिन्न हो। मैं तुम्हें वचन देता हु की मैं स्वयं तुम्हारी प्रतिज्ञा को पूर्ण करूँगा और पुरुषोत्तम क्षेत्र जगन्नाथ पुरी में प्रकट होऊंगा और ब्रम्हांड में प्रत्येक जीव को अपना महाप्रसाद प्रदान करूंगा।
आज भी जगन्नाथ पुरी में भगवान जगन्नाथ को भोग लगाने के पश्चात सर्व प्रथम प्रसाद विमलादेवी(माता पार्वती ) के मंदिर में अर्पित किया जाता है।