बुधवार, 28 जुलाई 2021

नारद मोह की कथा

नारद जी ने एक आश्रम में जन्म लिया था। उनकी माँ उस आश्रम की सेविका थीं। नारद जी का बचपन ऋषि कुमारों के साथ खेल-कूदकर बीता। ऋषि-महर्षियों के संग ने उनके मन में छुपी हुई आध्यात्मिक जिज्ञासा को जगा दिया और वे भी योग के रास्ते पर चल पड़े। अपनी तपस्या के बल पर उन्होंने सिद्धियाँ प्राप्त की और सदा के लिए अमर हो गए। नारद जी को यह अभिमान हो गया कि उनसे बढ़कर इस पृथ्वी पर और कोई दूसरा विष्णु भगवान का भक्त नहीं है।

उनका व्यवहार भी इस भावना से प्रेरित होकर कुछ बदलने लगा। वे भगवान के गुणों का गान करने के साथ-साथ अपने सेवा कार्यों का भी वर्णन करने लगे। भगवान से कोई बात छुपी थोड़े ही है। उन्हें तुरन्त इसका पता चल गया। भला वे अपने भक्त का पतन कैसे देख सकते थे। इसलिए उन्होंने नारदजी को इस दुष्प्रवृत्ति से बचाने का निर्णय किया। एक दिन नारद जी और भगवान विष्णु साथ-साथ वन में जा रहे थे कि अचानक विष्णु जी एक वृक्ष के नीचे थककर बैठ गए और बोले, 'भई नारद जी हम तो थक गए,प्यास भी लगी है। कहीं से पानी मिल जाए तो लाओ। हमसे तो प्यास के मारे चला ही नहीं जा रहा है। हमारा तो गला सूख रहा है। नारद जी तुरन्त सावधान हो गए, उनके होते हुए भला भगवान प्यासे रहें। वे बोले, भगवान अभी लाया, आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करें। नारद जी एक ओर दौड़ लिए।

उनके जाते ही भगवान मुस्कराए और अपनी माया को नारद जी को सत्य के मार्ग पर लाने का आदेश दिया। माया शुरू हो गई। नारद जी थोड़ी दूर ही गए होगें कि एक गाँव दिखाई पड़ा, जिसके बाहर कुँए पर कुछ युवा स्त्रियाँ पानी भर रही थीं। कुँए के पास जब वे पहुँचे तो एक कन्या को देखकर अपनी सुध-बुध खो
बैठे, बस उसे ही निहारने लगे। यह भूल गए कि वे भगवान के लिए पानी लेने आए थे। कन्या भी समझ गई। वह जल्दी-जल्दी जल से घड़ा भरकर अपनी सहेलियों को पीछे छोड़कर घर की ओर लपकी।

नारद जी भी उसके पीछे हो लिए। कन्या तो घर के अन्दर चली गई लेकिन नारद जी ने द्वार पर खड़े होकर नारायण, नारायण का अलख जगाया। गृहस्वामी नारायण का नाम सुनकर बाहर आया। उसने नारद जी को तुरन्त पहचान लिया। अत्यन्त विनम्रता और आदर के साथा वह उन्हें घर के अन्दर ले गया और उनके हाथ-पैर धुलाकर स्वच्छ आसन पर बैठाया तथा उनकी सेवा-सत्कार में कोई कमी न छोड़ी। तब शान्ति के साथ उनके आगमन से अपने को धन्य बताते हुए अपने योग्य सेवा के लिए आग्रह किया। नारदजी बोले, आपके घर में जो आपकी कन्या जल का घड़ा लेकर अभी-अभी आई है, मैं उससे विवाह करना चाहता हूँ। गृहस्वामी एकदम चकित रह गया लेकिन उसे प्रसन्नता भी हुई कि मेरी कन्या एक ऐसे महान् योगी तथा सन्त के पास जाएगी। 

उसने स्वीकृति प्रदान कर दी और नारद जी को अपने घर में ही रख लिया। दो-चार दिन पश्चात् शुभ मुहूर्त ने अपनी कन्या का विवाह नारद जी के साथ कर दिया तथा उन्हें ग्राम में ही उतनी धरती का टुकड़ा दे दिया कि खेती करके वे आराम से अपना पेट भर सकें। अब नारद जी की वीणा एक खूटी पर टंगी रहती जिसकी ओर उनका ध्यान बहुत कम जाता। अपनी पत्नी के आगे नारायण को वे भूल गए। दिन भर खेती में लगे रहते। कभी हल चलाते, कभी पानी देते, कभी बीज बोते, कभी निराई-गुड़ाई करते। जैसे-जैसे पौधे बढ़ते उनकी प्रसन्नता का पारा वार न रहता। फ़सलें हर वर्ष पकतीं, कटतीं, अनाज से उनके कोठोर भर जाते।

नारद जी की गृहस्थी भी बढ़ती गई। तीन-चार लड़के-लड़कियाँ भी हो गए। अब नारद जी को एक क्षण भी फुरसत न थी। वे हर समय उनके पालन-पोषण तथा पढ़ाई-लिखाई में लगे रहते अथवा खेती में काम करते। अचानक एक बार वर्षा के दिनों में तेज़ बारिश हुई। कई दिनों तक बन्द होने का नाम ही नहीं लिया। बादलों की गरज और बिजली की कड़क ने सबके हृदय में भय उत्पन्न कर दिया।मूसलाधार वर्षा ने ग्राम के पास बहने वाली नदी में बाढ़ की स्थिति पैदा कर दी। किनारे तोड़कर नदी उफन पड़ी। चारों ओर पानी ही पानी कच्चे-पक्के सभी मकान ढहने लगे। घर का सामान बह गया। पशु भी डूब गए। अनेक व्यक्ति मर गए। गाँव में त्राहि-त्राहि मच गई।

नारद जी अब क्या करें। उन्होंने भी घर में जो कीमती थोड़ा-बहुत सामान बचा था उसकी गठड़ी-मुठरी बांधी और अपनी पत्नी तथा बच्चों को लेकर पानी में से होते हुए जान बचाने के लिए घर से बाहर निकले। बगल में गठरी, एक हाथ से एक बच्चे का पकड़े, दूसरे से अपनी स्त्री को संभाले तथा पत्नी भी एक बच्चे को गोद में लिए, एक का हाथ पकड़े धीरे-धीरे आगे बढ़े। पानी का बहाव अत्यन्त तेज़ था तथा यह भी पता नहीं चलता था कि कहाँ गड्डा है और कहाँ टीला। अचानक नारद जी ने ठोकर खाई और गठरी बगल से निकलकर बह गई। नारद जी गठरी कैसे पकड़ें, दोनों हाथ तो घिरे थे। सोचा जैसा उसकी इच्छा फिर कमा लेंगे। कुछ दूर जाने पर पत्नी एक गड्ढे में गिर पड़ी और गोद का बच्चा बह गया। पत्नी बहुत रोई, लेकिन क्या हो सकता था, धीरे-धीरे और दो बच्चे भी पानी में बह गए, बहुत कोशिश की उन्हें बचाने की, लेकिन कुछ न हो सका। दोनों पति-पत्नी बड़े दुखी, रोते, कलपते, एक-दूसरे को सात्वना देते, आगे कोई ऊंची जगह ढूंढते बढ़ते रहे। एक जगह आगे चलकर दोनों एक गड्डे समा गए। नारद जी तो किसी प्रकार के गड्ढे में से निकल आए, लेकिन उनकी पत्नी का पता नहीं चला। बहुत देर तक नारदजी उसे इधर से उधर दूर-दूर तक ढूँढते रहे लेकिन व्यर्थ, रोते-रोते उनका बुरा हाल था, हृदय पत्नी और बच्चों को याद कर करके फटा जा रहा था। उनकी तो सारी गृहस्थी उजड़ गई थी। बेचारे क्या करें, किसे कोसें अपने भाग्य को या भगवान को।

भगवान का ध्यान आते ही नारद जी के मस्तिष्क में प्रकाश फैल गया और पुरानी सभी बातें याद आ गई। वे किसलिए आए थे और कहाँ फंस गए। ओ हो। भगवान विष्णु तो उनकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। वे तो उनके लिए जल लेने आए थे और यहाँ गृहस्थी बसाकर बैठ गए। वर्षों बीत गए, गृहस्थी को बसाने में और फिर सब नष्ट हो गया। क्या भगवान अब भी मेरी प्रतीक्षा में उसी वृक्ष के नीचे
बैठे होंगे। 

यह सोचते ही बाढ़ नदारद हो गई। गाँव भी अतंर्धान हो गया। वे तो घने वन में खड़े थे। नारद जी पछताते और शरमाते हुए दौड़े, देखा कुछ ही दूर पर उसी वृक्ष के नीचे भगवान लेटे हैं। नारद जी को देखते ही वे उठ बैठे और बोले, अरे भाई नारद, कहाँ चले गए थे, बड़ी देर लगा दी। पानी लाए या नहीं। नारद जी भगवान के चरण पकड़कर बैठ गए और लगे अश्रु बहाने। उनके मुँह से एक बोल भी न फटा। भगवान मुस्कराए और बोले, तुम अभी तो गए थे। कुछ अधिक देर थोड़े ही हुई है। लेकिन नारद जी को लगता है कि वर्षों बीत गए। अब उनकी समझ में
आया कि सब भगवान की माया थी, जो उनके अभिमान को चूर-चूर करने के लिए पैदा हुई थी। उन्हें बड़ा घमण्ड था कि उनसे बढ़कर त्रिलोक में दूसरा कोई भक्त नहीं है। जरा सी देर में ढेर हो गया। वे पुनः सरलता और विनय के साथ भगवान के गुण गाने लगे।

इस कथा से हमें यह शिक्षा मिलती है कि यदि हमारे पास कुछ है, हमने अथक परिश्रम, लगन तथा निष्ठा से कुछ प्राप्त कर लिया है चाहे वह अपार धन हो, शारीरिक शक्ति हो, भरा-पूरा परिवार हो या फिर कोई ऊंची योग्यता, पद या यश हो तो उस पर घमण्ड क्यों करें। क्या हमसे ऊपर और लोग नहीं हैं क्या हम ही सर्वोपरि हैं। अनेक हमसे पहले हो चुके हैं और आगे भी होगें फिर घमण्ड कैसा। अपनी इस विशेषता से अपना और दूसरों का लाभ होने दें तभी उसका कुछ महत्त्व है अन्यथा वह तो कोयले की बोरी के समान है जो आपके स्टोर में व्यर्थ में ही बिना उपयोग में आए रखी है। इकट्ठा करने में नहीं बांटने में सुख है, आनन्द है।
||राधे राधे||

मंगलवार, 27 जुलाई 2021

श्री रामचरितमानस के सुंदरकांड का एक अनूठा प्रसंग


हनुमान जी की भूख इतनी प्रबल है कि जब वे अशोक वाटिका में श्री सीता जी के पास गए तब उन्होंने यह नही कहा कि मुझे भूख लगी है , अपितु कहा कि-

सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।

अति भूख भी नहीं अपितु अतिसय भूख शब्द का प्रयोग किया । माँ ने पूछा - यह भूख के साथ अतिशय का क्या अर्थ? तो हनुमान जी ने कहा माँ! सत्य तो यह है कि मैं जन्मजात भूखा हूँ। इस संदर्भ में बडी प्रसिद्ध कथा है, जब हनुमान जी का जन्म हुआ तो लाल लाल सूर्य दिखाई पडा और हनुमान जी ने उसको फल समझकर खा लिया। प्रश्न यह है कि क्या सचमुच हनुमानजी इतने ना समझ थे कि उन्होंने सूर्य को फल समझ लिया ? और जिस पर्वत पर हनुमान जी थे क्या उसके आसपास फलों के वृक्ष नहीं थे ?

यद्यपि पर्वत पर तो अनेकानेक फल युक्त वृक्ष थे और यदि उनका फल तोड़ना चाहते तो यह बात ठीक होती । पर इसके स्थान प्रेस सूर्य रूपी फल को खाने के लिए उन्हें कितनी लम्बी छलाँग क्यों लगाना पड़ी ? यदि विचार करके देखें तो हमें स्पष्ट प्रतीत होगा कि जिसने एक छलाँग लगाकर सूर्य को मुँह में धारण कर लिया हो वे हनुमान जी कितने विलक्षण हैं और उनकी भूख कोई साधारण नहीं
है।

इतना ही नहीं फल खाने पर इंद्र ने वज्र से उन पर प्रहार भी कर दिया, तथा हनुमान जी को मूर्छित होना पडा। पर जब बाद में पवन देवता के द्वारा प्राण - वायु की गति रुकने लगी तो फिर सारे इस पर थोड़ा विचार कर लिया जाय।

वस्तुत: श्री हनुमानजी ने किसी भ्रम के कारण सूर्य को फल नहीं समझा था।' फल' के बारे में हम पढ़ते ही हैं अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष से चार फल माने जाते हैं । हनुमानजी यदि चाहते तो उन्हें अर्थ का फल उन्हें सरलता से प्राप्त हो जाता। काम तथा धर्म का फल भी वे प्राप्त कर लेते । परन्तु पास वाले फलों की ओर हनुमान जी मे हाथ नहीं बढ़ाया इसका अर्थ है कि उन्हे ज्ञान की भूख है, प्रकाश
की भूख है। संसार की वस्तुओं की भूख उनके जीवन में नहीं है, वे तो केवल चरम फल के लिए छलाँग लगाते हैं।

श्री हनुमानजी सचमुच छलाँग लगाना जानते हैं। उनकी प्रत्येक छलाँग अनोखी है। जब उनकी पहली छलाँग तो सूर्य तक पहुंच गए। दूसरी छलाँग लंका की दिशा में लगाई तो श्री सीताजी तक पहुंच गये। तीसरी छलाँग में लक्ष्मण जी के लिए दवा लेने द्रोणाचल पर्वत पर पहुंच गए और चौथी छलाँग लगी तो लंका से सीधे अयोध्या पहुंच गये।

हमारे लिए तो सीढी से चढ़ना ही उपादेय है। व्यक्ति यदि यह सोचे कि मुझे अर्थ, धर्म तथा काम का फल नहीं चाहिए , मुझे तो केवल मोक्ष चाहिये यह उचित नहीं हैं। साधारण व्यक्ति श्री हनुमान जी का अनुसरण करके छलाँग तो लगा दे, पर अगर छलाँग सही न लगी तो वह नीचे भी गिर जाएगा। इसलिये हनुमान जी की भूख माने, सुमति- छुधा अर्थात् ज्ञान तथा प्रकाश की भूख।

हनुमान जी ने सूर्य को मुख में धारण कर लिया इसका भी अर्थ दूसरा था।हमारे पुराणों में कथा आती है कि ठीक उसी समय सूर्य ग्रहण लगने वाला था। समय पाकर ग्रहण लगता है और सूर्य का प्रकाश छिप जाता है । इसका अर्थ है कि सूर्य के साथ भी राह की समस्या है।

यह राह मात्सर्य तथा ईर्ष्या वृत्ति का परिचायक है। वर्णन आता है कि राहु का रंग है काला और सूर्य का उज्वल। राहु यह चेष्टा करता है कि भले ही हम ज्ञान (सूर्य) को सदा के लिए न मिटा सकें पर थोड़े समय के लिए इसे ग्रस कर अंधेरा तो अवश्य फैला सकते हैं। हनुमान जी के जन्म के समय जब राहु सूर्य की ओर बढ रहा था उसी समय हनुमान जी छलाँग लगाकर पहुंचे और उन्होंने सूर्य को मुँह मे धारण कर लिया। लोगों को लगा कि उन्होंने सूर्य को खा लिया पर विवेकी व्यक्ति समझ गये कि खा नहीं लिया अपितु राहु के द्वारा खाए जाने से सूर्य को बचा लिया क्योंकि हनुमान जी अगर मुख में न लेते तो राहु मुख में ले लेता। श्री
हनुमान जी ज्ञान का फल मुख में धारण करते हैं इसका सीधा सा तात्पर्य है कि जब वेदमंत्रों तथा श्लोकों का पाठ किया जाएगा तो मुख से ही तो किया जाएगा। इसलिये कहा जा सकता है कि मुख का जितना बढिया उपयोग करना श्री हनुमान जी जानते हैं दूसरा भला क्या जानेगा।जिन्होंने जन्म लेते ही सूर्य को मुख मे धारण कर लिया।

जब दूसरी छलाँग लगाने लगे तो उस समय भगवान श्रीराम ने मुद्रिका दी और प्रभु मुद्रिका लेते ही-

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं

उसे मुख में धारण कर लेते है। इसका अभिप्राय क्या है कि सूर्य को भी मुख में धारण करते हैं और राम नाम को भी मुख में धारण कर लेते है। तात्पर्य यह है कि हनुमान जी महाराज ज्ञान (सूर्य) और भक्ति( रामनाम अंकित मुद्रिका) दोनों को मुख मे धारण करते है। मुख का इससे अच्छा सदुपयोग और क्या हो सकता है।
||जय श्री राम||

सोमवार, 26 जुलाई 2021

ईश्वर पर भरोसा रखे, वह अवश्य सही समय पर सबकुछ देगा


एक बार एक राजा था, वह जब भी मंदिर जाता, तो 2 भिखारी उसके दाएं और बाएं बैठा करते दाईं तरफ़ वाला कहता: हे ईश्वर, तूने राजा को बहुत कुछ दिया है, मुझे भी दे दे.!" बाईं तरफ़ वाला कहता: ऐ राजा.! ईश्वर ने तुझे बहुत कुछ दिया है, मुझे भी कुछ दे दे!" दाईं तरफ़ वाला भिखारी बाईं तरफ़ वाले से कहता:
ईश्वर से माँग वह सबकी सुनने वाला है,बाईं तरफ़ वाला जवाब देता: “चुप कर मुर्ख।

एक बार राजा ने अपने मंत्री को बुलाया और कहा कि मंदिर में दाईं तरफ जो भिखारी बैठता है वह हमेशा ईश्वर से मांगता है तो अवश्य ईश्वर उसकी ज़रूर सुनेगा लेकिन जो बाई तरफ बैठता है वह हमेशा मुझसे फरियाद करता रहता है, तो तुम ऐसा करो कि एक बड़े से बर्तन में खीर भर कर उसमे स्वर्ण मुद्रा डाल दो और वह उसको दे 

मंत्री ने ऐसा ही किया.. अब वह भिखारी मज़े से खीर खाते-खाते दूसरे भिखारी को चिड़ाता हुआ बोला: "हुह... बड़ा आया ईश्वर देगा..', यह देख राजा से माँगा, मिल गया ना.?" खाते खाते जब इसका पेट भर गया तो इसने बची
हुई खीर का बर्तन उस दूसरे भिखारी को दे दिया और कहा: "ले पकड़... तू भी खाले, मुर्ख"

अगले दिन जब राजा आया तो देखा कि बाईं तरफ वाला भिखारी तो आज भी वैसे ही बैठा है लेकिन दाईं तरफ वाला ग़ायब है.. राजा ने चौंक कर उससे पूछा: "क्या तुझे खीर से भरा बर्तन नहीं मिला.?"

भिखारी: "जी मिला था राजा जी, क्या स्वादिस्ट खीर थी, मैंने खूब पेट भर कर खायी.!"
राजा: फिर..?!!?"
भिखारी: "फ़िर जब मेरा पेट भर गया तो वह जो दूसरा भिखारी यहाँ बैठता है मैंने उसको दे दी, मुर्ख हमेशा कहता रहता है: ईश्वर देगा, ईश्वर देगा.! ले
खा ले।

राजा मुस्कुरा कर बोला: "अवश्य ही, ईश्वर ने उसे दे ही दिया.!"
इसलिए आप भी सदा ईश्वर पर भरोसा रखें।

जय जय श्री राधे 

शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

भगवान् श्रीराम के मृग का पीछा करने का सच


जब मारीच स्वर्णमृग के रूप में सीताजी को दिखाई दिया और उन्होंने श्रीरामजी तथा लक्ष्मणजी को उसे दिखाया। देखते ही लक्ष्मणजी ने कहा-

‘‘अहं मन्ये मारीचं राक्षसं मृगम्
अनेन निहता राम राजानः कामरूपिणा।’’ 
                                   
अर्थात् यह मृग के रूप में राक्षस मारीच आया है, ऐसा मैं मानता हूँ। इसी इच्छाधारी राक्षस ने अनेक राजाओं का वध किया है। सीताजी ने उसे जीवित पकड़ कर लाने का आग्रह किया था, न कि मारकर लाने के लिये। यदि कहें कि जीवित ही पकड़ना था, तो धनुष बाण ले जाने की क्या आवश्यकता थी? इस विषय में मेरा मानना है कि मृग को दौड़कर हाथों से नहीं पकड़ा जा सकता, बल्कि मोहनास्त्र आदि के द्वारा बांध कर ही पकड़ा जा सकता है। इस कारण धनुष बाण लेकर गये। इसके साथ ही क्षत्रिय को निरस्त्र, निःशस्त्र रहना भी नहीं चाहिये। फिर उन्हें यह आशंका थी ही कि मृग मारीच है, तब तो सशस्त्र होकर जाना अनिवार्य ही था। जब श्रीरामजी उस मृग के पीछे चलने को उद्यत होते हैं, तब उन्होंने लक्ष्मणजी से कहा-

‘‘यदि वायं यथा यन्मां भवेद् वदसि लक्ष्मण। 
मायैषा राक्षसस्येति कत्र्तव्योऽस्य वधो मया।। 
एतेन हि नृशंसेन मारीचेना कृतात्मना।
वने विचरता पूर्वं हिंसिता मुनिपुंगवाः।’’
                            
अर्थात् हे लक्ष्मण! तुम मुझसे जैसा कह रहे हो, यदि वैसा ही यह मृग हो, यदि राक्षसी माया ही हो, तो इसे मारना मेरा कर्तव्य है। Mann Mandir YouTube channel

क्योंकि इस दुष्ट ने मुनियों की हत्या की है। इससे स्पष्ट है कि श्रीरामजी ने उस जानवर को मारीच ही समझा था न कि स्वर्णमृग। हमें यह विचारना चाहिये कि लक्ष्मणजी उनके साथ सेवा हेतु ही आये थे। वे ही स्थान-स्थान पर कुटी व शय्या तैयार करते हैं, जल, कन्द, मूल, फल लाते हैं। तब यदि वह जानवर ही पकड़ना वा मारना था, तो क्या यह कार्य लक्ष्मणजी नहीं कर सकते थे? जो लक्ष्मणजी बड़े-बड़े योद्धाओं से घोर युद्ध करने में समर्थ थे, वे उस मृग को मार वा पकड़ नहीं सकते थे? तब क्यों श्रीरामजी यह साधारण काम करने हेतु स्वयं गये और लक्ष्मणजी को वहां सीताजी की रक्षार्थ नियुक्त किया? क्यों नहीं, सदैव सेवातत्पर अनुज लक्ष्मणजी को यह कार्य सौंपा? इससे स्पष्ट है कि श्रीरामजी स्थिति की गम्भीरता समझ रहे थे। मारीच के पराक्रम व माया को जानकर, लक्ष्मणजी को भेजकर, उन्हें संकट में नहीं डालना चाहते थे। उन्हें गम्भीर परिस्थितियों में अपने पौरुष का विश्वास था। इस प्रकार की परिस्थिति उस समय भी आयी थी, जब खर और दूषण ने 14 हजार राक्षसों की सेना लेकर आक्रमण कर दिया था। उस समय श्रीरामजी ने लक्ष्मणजी को युद्ध का आदेश न देकर स्वयं ही युद्ध किया था और लक्ष्मणजी को सीताजी की रक्षार्थ नियुक्त किया था। इसी प्रकार यहां भी यही परिस्थिति बनी थी। इस सब पर गम्भीरता से विचारने पर यह सिद्ध होता है कि श्रीरामजी शिकार हेतु नहीं बल्कि उसे मारीच जानकर घोर युद्ध करने गये थे। हम इस विषय की यथार्थता जानने हेतु रामायण के अन्य प्रसंगों पर भी दृष्टि डालें, तो पायेंगे कि उस काल में किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं होती थी, सिवा दुष्ट दमनार्थ युद्ध के। जिस समय महात्मा भरतजी चित्रकूट में श्रीरामजी से मिलने आते हैं, तब श्रीरामजी ने मिलते ही उन्हें कुशलक्षेम पूछते हुये सम्पूर्ण राजनीति का उपदेश किया है। उसमें एक बिन्दु आता है, जिसमें अयोध्या ‘हिंसाभिरभिवर्जितः’ कहा है (अयो. कां.100वां सर्ग, श्लोक 44)।

अर्थात् अयोध्या हिंसा से पूर्ण मुक्त थी, तब शिकार कैसे किया जा सकता है? जब श्रीराम का राजतिलक होने वाला था, तब महाराज दशरथजी ने श्रीरामजी को उपदेश देते हुये 18 व्यसनों से दूर रहने को कहा था, ये 18 व्यसन भगवान् मनुप्रोक्त कामज व क्रोधज व्यसन हैं, जिनमें शिकार खेलना राजाओं के लिये प्रथम दुव्र्यसन बताया है। तब श्रीरामजी व दशरथजी का शिकार खेलना, हिंसा करना कैसे सिद्ध हो सकता है? यदि कोई यह प्रश्न करे कि जब श्रीरामजी शिकार खेलते ही नहीं थे, तब उन्हें उपदेश देकर निषेध करने की आवश्यकता कैसे पड़ी? इसका उत्तर स्वयं दशरथजी के वचनों से ही मिल जाता है। वे कहते हैं-

‘‘कामतस्वं प्रकृत्यैव निर्णीतो गुणवानिति।
गुणवत्यपि तु स्नेहात् पुत्र वक्ष्यामि ते हितम्।।’’
                                  
अर्थात् यद्यपि तुम स्वभाव से ही गुणवान् हो और तुम्हारे विषय में सबका यही निर्णय है, तथापि मैं स्नेहवश सद्गुणसम्पन्न होने पर भी तुम्हें हित की बातें कहता हूँ। इससे स्पष्ट है कि श्रीरामजी में उपर्युक्त व्यसन नहीं होने पर भी पिता होने के नाते उपदेश करना कर्तव्य समझ कर ही ऐसा कहा था।
||जय श्री राम||

गुरुवार, 22 जुलाई 2021

राजा भर्तृहरि की कथा


पुराने जमाने में एक राजा हुए थे, भर्तृहरि। वे कवि भी थे। उनकी पत्नी अत्यंत रूपवती थीं। भर्तृहरि ने स्त्री के सौंदर्य और उसके बिना जीवन के सूनेपन पर 100 श्लोक लिखे, जो श्रृंगार शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं।

उन्हीं के राज्य में एक ब्राह्मण भी रहता था, जिसने अपनी नि:स्वार्थ पूजा से देवता को प्रसन्न कर लिया।

देवता ने उसे वरदान के रूप में अमर फल देते हुए कहा कि इससे आप लंबे समय तक युवा रहोगे। ब्राह्मण ने सोचा कि भिक्षा मांग कर जीवन बिताता हूं, मुझे लंबे समय तक जी कर क्या करना है। 

हमारा राजा बहुत अच्छा है, उसे यह फल दे देता हूं। वह लंबे समय तक जीएगा तो प्रजा भी लंबे समय तक सुखी रहेगी।

वह राजा के पास गया और उनसे सारी बात बताते हुए वह फल उन्हें दे आया।

राजा फल पाकर प्रसन्न हो गया। फिर मन ही मन सोचा कि यह फल मैं अपनी पत्नी को दे देता हूं।
वह ज्यादा दिन युवा रहेगी तो ज्यादा दिनों तक उसके सुख का लाभ मिलेगा। 

अगर मैंने फल खाया तो वह मुझ से पहले ही मर जाएगी और उसके वियोग में मैं भी नहीं जी सकूंगा। उसने वह फल अपनी पत्नी को दे दिया।

लेकिन, रानी तो नगर के कोतवाल से प्यार करती थी। 

वह अत्यंत सुदर्शन, हृष्ट-पुष्ट और बातूनी था।

अमर फल उसको देते हुए रानी ने कहा कि इसे खा लेना, इससे तुम लंबी आयु प्राप्त करोगे और मुझे सदा प्रसन्न करते रहोगे।

फल ले कर कोतवाल जब महल से बाहर निकला तो सोचने लगा कि रानी के साथ तो मुझे धन-दौलत के लिए झूठ-मूठ ही प्रेम का नाटक करना पड़ता है। 

और यह फल खाकर मैं भी क्या करूंगा। इसे मैं अपनी परम मित्र राज नर्तकी को दे देता हूं। वह कभी मेरी कोई बात नहीं टालती।

मैं उससे प्रेम भी करता हूं। और यदि वह सदा युवा रहेगी, तो दूसरों को भी सुख दे पाएगी। उसने वह फल अपनी उस नर्तकी मित्र को दे दिया। राज नर्तकी ने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप वह अमर फल अपने पास रख लिया।

कोतवाल के जाने के बाद उसने सोचा कि कौन मूर्ख यह पाप भरा जीवन लंबा जीना चाहेगा। हमारे देश का राजा बहुत अच्छा है, उसे ही लंबा जीवन जीना चाहिए। 

यह सोच कर उसने किसी प्रकार से राजा से मिलने का समय लिया और एकांत में उस फल की महिमा सुना कर उसे राजा को दे दिया।

और कहा कि महाराज, आप इसे खा लेना।

राजा फल को देखते ही पहचान गया और भौंचक रह गया। 

पूछताछ करने से जब पूरी बात मालूम हुई, तो उसे वैराग्य हो गया और वह राज-पाट छोड़ कर जंगल में चला गया। वहीं उसने वैराग्य पर 100 श्लोक लिखे जो कि वैराग्य शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं। यही इस संसार की असली वास्तविकता है।

एक व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम करता है और चाहता है  कि वह व्यक्ति भी उसे उतना ही प्रेम करे। परंतु विडंबना यह कि वह दूसरा व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम करता है।

इसका कारण यह है कि संसार व इसके सभी प्राणी अपूर्ण हैं। सब में कुछ न कुछ कमी है।  सिर्फ एक पुरषोत्तम भगवान् श्री कृष्ण ही एक मात्र पूर्ण हैं ।

एक वही हैं जो हर जीव से उतना ही प्रेम करते हैं , जितना जीव उनसे करता है 

बल्कि उससे कहीं अधिक। बस हम ही उन्हें सच्चा प्रेम नहीं करते।।

राधे राधे।।

बुधवार, 21 जुलाई 2021

जीवन का मूल्य क्या है?


एक आदमी ने एक महात्मा से पुछा जीवन का मूल्य क्या है?
महात्मा ने उसे एक पत्थर दिया और कहा जा और इस पत्थर का मूल्य पता करके आ , लेकिन ध्यान रखना पत्थर को बेचना नही है वह आदमी पत्थर को बाजार मे एक संतरे वाले के पास लेकर गया और बोला इसकी कीमत क्या है? 

संतरे वाला चमकीले पत्थर को देखकर बोला, "12 संतरे लेजा और इसे मुझे दे जा"।

आगे एक सब्जी वाले ने उस चमकीले पत्थर को देखा और कहा

एक बोरी आलू ले जा और इस पत्थर को मेरे पास छोड़ जा "।

आगे एक सोना बेचने वाले के पास गया उसे पत्थर दिखाया सुनार उस चमकीले पत्थर को देखकर बोला: 

"50 लाख में बेच दे उसने मना कर दिया तो सुनार बोला 2 करोड़ मे दे दे या बता इसकी कीमत जो माँगेगा वह दूँगा तुझे।

उस आदमी ने सुनार से कहा मेरे गुरू ने इसे बेचने से मना किया है आगे हीरे बेचने वाले एक जौहरी के पास गया उसे पत्थर दिखाया जौहरी ने जब उस बेसकीमती रुबी को देखा , तो पहले उसने रुबी के पास एक लाल कपडा बिछाया फिर उस बेसकीमती रुबी की परिक्रमा लगाई माथा टेका फिर जौहरी बोला , “कहा से लाया है ये बेसकीमती रुबी? सारी कायनात , सारी दुनिया को बेचकर भी इसकी कीमत नही लगाई जा सकती ये तो बेसकीमती है वह आदमी हैरान परेशान होकर सीधे महात्मा के पास आया अपनी आप बिती बताई और
बोला “अब बताओ भगवान , मानवीय जीवन का मूल्य क्या है?

महात्मा बोले संतरे वाले को दिखाया उसने इसकी कीमत 12 संतरे की बताई सब्जी वाले के पास गया उसने इसकी कीमत । बोरी आलू बताई आगे सुनार ने 2 करोड़ बताई और जौहरी ने इसे "बेसकीमती बताया अब ऐसा ही मानवीय मूल्य का भी है तू बेशक हीरा है..!!लेकिन, सामने वाला तेरी कीमत अपनी औकात - अपनी जानकारी- अपनी हैसियत से लगाएगा। 

हमेशा याद रखे की दुनिया में तुम्हे पहचानने वाले भी मिल जायेगे।
अपनी इज्जत हमेशा कीजिए, आप सबसे अलग हो।

मंगलवार, 20 जुलाई 2021

संचित कर्मो का फल


एक दिन एक राजा ने अपने 3 मन्त्रियो को दरबार में  बुलाया, और  तीनो  को  आदेश  दिया  के  एक  एक  थैला  ले  कर  बगीचे  में  जाएं और वहां  से  अच्छे  अच्छे  फल  (fruits ) जमा  करें   वो  तीनो  अलग  अलग  बाग़  में प्रविष्ट  हो  गए पहले  मन्त्री  ने  कोशिश  की  के  राजा  के  लिए  उसकी पसंद  के  अच्छे  अच्छे  और  मज़ेदार  फल  जमा  किए जाएँ , उस ने  काफी  मेहनत  के  बाद  बढ़िया और  ताज़ा  फलों  से  थैला  भर लिया।

दूसरे मन्त्री  ने  सोचा  राजा  हर  फल  का परीक्षण  तो करेगा नहीं , इस  लिए  उसने  जल्दी  जल्दी  थैला  भरने  में  ताज़ा , कच्चे , गले  सड़े फल  भी  थैले  में  भर  लिए तीसरे  मन्त्री  ने  सोचा  राजा  की  नज़र  तो  सिर्फ  भरे  हुवे थैले  की  तरफ  होगी  वो  खोल  कर  देखेगा  भी  नहीं  कि  इसमें  क्या  है , उसने  समय बचाने  के  लिए  जल्दी  जल्दी  इसमें  घास , और  पत्ते  भर  लिए  और  वक़्त  बचाया।

दूसरे  दिन  राजा  ने  तीनों मन्त्रियो  को  उनके  थैलों  समेत  दरबार  में  बुलाया  और  उनके  थैले  खोल  कर  भी  नही देखे  और  आदेश दिया  कि , तीनों  को  उनके  थैलों  समेत  दूर  स्थान के एक जेल  में  ३  महीने  क़ैद  कर  दिया  जाए।

अब  जेल  में  उनके  पास  खाने  पीने  को  कुछ  भी  नहीं  था  सिवाए  उन  थैलों  के तो  जिस मन्त्री ने  अच्छे  अच्छे  फल  जमा  किये  वो  तो  मज़े  से  खाता  रहा  और  3 महीने  गुज़र  भी  गए।

फिर  दूसरा  मन्त्री जिसने  ताज़ा , कच्चे  गले  सड़े  फल  जमा  किये  थे,  वह कुछ  दिन  तो  ताज़ा  फल  खाता  रहा  फिर  उसे  ख़राब  फल  खाने  पड़े , जिस  से  वो  बीमार  होगया  और  बहुत  तकलीफ  उठानी  पड़ी और  तीसरा मन्त्री  जिसने  थैले  में  सिर्फ  घास  और  पत्ते  जमा  किये  थे  वो  कुछ  ही  दिनों  में  भूख  से  मर  गया अब  आप  अपने  आप  से  पूछिये  कि  आप  क्या  जमा  कर  रहे  हो  ??

आप  इस समय जीवन के  बाग़  में  हैं , जहाँ  चाहें  तो  अच्छे कर्म जमा  करें .. चाहें  तो बुरे कर्म , कोई देखने वाला नही, सिवाय भगवान के मगर याद रहे जो आप जमा करेंगे वही आपको आखरी समय काम आयेगा  क्योंकि दुनिया क़ा राजा आपको चारों ओर से देख रहा है । 

जय जय श्री राधे कृष्ण जी

भक्त कुम्हार और श्री कृष्ण की कथा


एक बार की बात है कि यशोदा मैया प्रभु श्री कृष्ण के उलाहनों से तंग आ गई और छड़ी लेकर श्री कृष्ण की ओर दौड़ी। जब प्रभु ने अपनी मैया को क्रोध में देखा तो वह अपना बचाव करने के लिए भागने लगे।भागते-भागते श्री कृष्ण एक कुम्हार के पास पहुंचे। कुम्हार तो अपने मिट्टी के घड़े बनाने में व्यस्त था। लेकिन जैसे ही कुम्हार ने श्री कृष्ण को देखा तो वह बहुत प्रसन्न हुआ। कुम्हार जानता था कि श्री कृष्ण साक्षात् परमेश्वर हैं। तब प्रभु ने कुम्हार से कहा कि 'कुम्हार जी, आज मेरी मैया मुझ पर बहुत क्रोधित है। मैया छड़ी लेकर मेरे पीछे आ रही है। भैया, मुझे कहीं छुपा लो।

तब कुम्हार ने श्री कृष्ण को एक बडे से मटके के नीचे छिपा दिया। कुछ ही क्षणों में मैया यशोदा भी वहां आ गईं और कुम्हार से पूछने लगी - 'क्यूं  रे,कुम्हार! तूने मेरे कन्हैया को कहीं देखा है, क्या?'

कुम्हार ने कह दिया - 'नहीं, मैया ! मैंने कन्हैया को नहीं देखा।' श्री कृष्ण यह सब बातें बड़े से घड़े के नीचे छुपकर सुन रहे थे। मैया तो वहां से चली गयीं।अब प्रभु श्री कृष्ण कुम्हार से कहते हैं - 'कुम्हार जी, यदि मैया चली गई हो तो मुझे इस घड़े से बाहर निकालो।' कुम्हार बोला - 'ऐसे नहीं, प्रभु जी ! पहले मुझे चौरासी लाख यानियों के बन्धन से मुक्त करने का वचन दो।'


भगवान मुस्कुराये और कहा - 'ठीक है, मैं तुम्हें चौरासी लाख योनियों से मुक्त करने का वचन देता हूं। अब तो मुझे बाहर निकाल दो।'

कुम्हार कहने लगा - 'मुझे अकेले नहीं, प्रभु जी ! मेरे परिवार के सभी लोगों को भी चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त करने का वचन दोगे तो मैं आपको इस घड़े से बाहर निकालूंगा।'प्रभु जी कहते हैं - 'चलो ठीक है, उनको भी चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त होने का मैं वचन देता हूं। अब तो मुझे घड़े से बाहर निकाल दो।अब कुम्हार कहता है - 'बस, प्रभु जी ! एक विनती और है। उसे भी पूरा करने का वचन दे दो तो मैं आपको घड़े से बाहर निकाल दूंगा।'

भगवान बोले - 'वो भी बता दे, क्या कहना चाहते हो ?'

कुम्हार कहने लगा - 'प्रभु जी ! जिस घड़े के नीचे आप छुपे हो, उसकी मिट्टी मेरे बैलों के ऊपर लाद के लाई गई है । मेरे इन बैलों को भी चौरासी के बन्धन से मुक्त करने का वचन दो ।'भगवान ने कुम्हार के प्रेम पर प्रसन्न होकर उन बैलों को भी चौरासी के बन्धन से मुक्त होने का वचन दिया ।'

प्रभु बोले - 'अब तो तुम्हारी सब इच्छा पूरी हो गई, अब तो मुझे घड़े से बाहर निकाल दो।'

तब कुम्हार कहता है - 'अभी नहीं, भगवन ! बस, एक अन्तिम इच्छा और है । उसे भी पूरा कर दीजिए और वह यह है - जो भी प्राणी हम दोनों के बीच के इस संवाद को सुनेगा, उसे भी आप चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त करोगे । बस, यह वचन दे दो तो मैं आपको इस घड़े से बाहर निकाल दूंगा।'

कुम्हार की प्रेम भरी बातों को सुन कर प्रभु श्री कृष्ण बहुत खुश हुए और कुम्हार की इस इच्छा को भी पूरा करने का वचन दिया ।

फिर कुम्हार ने बाल श्री कृष्ण को घड़े से बाहर निकाल दिया। उनके चरणों में साष्टांग प्रणाम किया। प्रभु जी के चरण धोए और चरणामृत लिया। अपनी पूरी झोपड़ी में चरणामृत का छिड़काव किया और प्रभु जी के गले लगकर इतना रोये क़ि प्रभु में ही विलीन हो गए।

जरा सोचें, जो बाल श्री कृष्ण सात कोस लम्बे-चौड़े गोवर्धन पर्वत को अपनी इक्क्नी अंगुली पर उठा सकते हैं, तो क्या वो एक घड़ा नहीं उठा सकते थे।

लेकिन बिना प्रेम रीझे नहीं नटवर नन्द किशोर। कोई कितने भी यज्ञ करे, अनुष्ठान करे, कितना भी दान करे, चाहे कितनी भी भक्ति करे, लेकिन जब तक मन में प्राणी मात्र के लिए प्रेम नहीं होगा, प्रभु श्री कृष्ण मिल नहीं सकते।

जय श्री राधे कृष्णा 

राम से बड़ा राम का नाम क्यों..?

 

रामदरबार में हनुमानजी महाराज श्री रामजी की सेवा में इतने तन्मय हो गए कि गुरू वशिष्ठ के आने का उनको ध्यान ही नहीं रहा, सबने उठ कर उनका अभिवादन किया लेकिन  हनुमानजी नहीं कर पाए।

वशिष्ठ जी ने श्री रामजी से कहा कि राम गुरु का भरे दरबार में अभिवादन नहीं कर अपमान करने पर क्या सजा होनी चाहिए?

श्री रामजी ने कहा गुरुवर आप ही बताएं

वशिष्ठ जी ने कहा:- "मृत्यु दण्ड"

श्रीराम जी ने कहा:- स्वीकार है

तब श्रीराम जी ने कहा:- गुरुदेव आप बताएं कि यह अपराध किसने किया है..

बता दूंगा पर "राम" वो तुम्हारा इतना प्रिय है कि, तुम अपने आप को सजा दे दोगे पर उसको नहीं दे पाओगे

श्रीराम जी ने कहा:- गुरुदेव,राम के लिए सब समान हैं, मैंने सीता जैसी पत्नी का सहर्ष त्याग धर्म के लिए कर दिया....फिर भी आप संशय कर रहे हैं..

नहीं, "राम"! मुझे तुम्हारे उपर पर संशय नहीं है पर, मुझे दण्ड के परिपूर्ण होने पर संशय है.... अत:यदि तुम यह विश्वास दिलाते हो कि,तुम स्वयं उसे मृत्यु दण्ड अपने अमोघ बाण से दोगे तो ही मैं अपराधी का नाम और अपराध बताऊंगा

श्रीराम जी ने पुन: अपना संकल्प व्यक्त कर दिया।

तब वशिष्ठ जी ने बताया कि यह अपराध हनुमान जी ने किया है

हनुमानजी ने भी स्वीकार कर लिया।

तब दरबार में रामजी ने घोषणा की कि कल सांयकाल सरयु के तट पर,हनुमानजी को में स्वयं अपने अमोघ बाण से मृत्यु दण्ड दूंगा

हनुमानजी के घर जाने पर उदासी की अवस्था में माता अंजनी ने देखा तो चकित रह गई कि मेरा लाल महावीर, अतुलित बल का स्वामी, ज्ञान का भण्डार, आज इस अवस्था में।

माता ने बार बार पुछा, पर जब हनुमान चुप रहें तो माता ने अपने दूध का वास्ता देकर पूछा।

तब हनुमानजी ने बताया कि, यह प्रकरण हुआ है अनजाने में... 

माता! आप जानती हैं कि हनुमान को संपूर्ण ब्रह्माण्ड में कोई नहीं मार सकता, पर भगवान श्रीराम के अमोघ बाण से भी कोई बच भी नहीं सकता l

तब "माता" ने कहा:- हनुमान,मैंने भगवान शंकर से, "राम" मंत्र (नाम) प्राप्त किया था ,और तुम्हें भी जन्म के साथ ही यह नाम घुटी में पिलाया।

जिसके प्रताप से तुमने बचपन में ही सूर्य को फल समझ मुख में ले लिया था,उस राम नाम के होते हुए हनुमान कोई भी तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकता,चाहे वो राम स्वयं ही क्यों ना हों।

राम नाम की शक्ति के सामने राम की शक्ति और राम के अमोघ शक्तिबाण की शक्तियां महत्वहीन हो जाएंगी। जाओ मेरे लाल,अभी से सरयु के तट पर जाकर राम नाम का उच्चारण करना आरंभ करदो।

माता के चरण छूकर हनुमानजी,सरयु किनारे राम राम राम राम रटने लगे।

सांयकाल,राम अपने सम्पूर्ण दरबार सहित सरयु तट आए.... 

सबको कोतूहल था कि क्या राम हनुमान को सजा देंगे..

लेकिन जब श्रीराम ने बार बार रामबाण,अपने महान शक्तिधारी,अमोघशक्ति बाण चलाए पर हनुमानजी के ऊपर उनका कोई असर नहीं हुआ तो गुरु वशिष्ठ जी ने शंका जताई:-

राम क्या तुम अपनी पुर्ण निष्ठा से बाणों का प्रयोग कर रहे हो।

तब श्रीराम ने कहा:- हां गुरूदेव, मैं गुरु के प्रति अपराध की सजा देने को अपने बाण चला रहा हूं,उसमें किसी भी प्रकार की चतुराई करके मैं कैसे वही अपराध कर सकता हूं।

तो तुम्हारे बाण अपना कार्य क्यों नहीं कर रहे हॆ

तब श्रीराम ने कहा:- गुरुदेव हनुमान राम राम राम की अंखण्ड रट लगाये हुए है,मेरी शक्तिंयों का अस्तित्व राम नाम के प्रताप के समक्ष महत्वहीन हो रहा है।

इससे मेरा कोई भी प्रयास सफल नहीं हो रहा है,आप ही बताएं गुरु देव ! मैँ क्या करुं।

गुरु देव ने कहा:- हे राम! आज से मैं तुम्हारे साथ तुम्हारे दरबार को त्याग कर,अपने आश्रम जा रहा हूं जहां राम नाम का निरंतर जप करुंगा

जाते -जाते, गुरुदेव वशिष्ठ जी ने घोषणा की....

हे राम ! मैं जानकर,मानकर,यह घोषणा कर रहा हूं कि स्वयं राम से राम का नाम बडा़ है,राम नाम महाअमोघशक्ति का सागर है। 

जो कोई जपेगा,लिखेगा,मनन करेगा,उसकी लोक कामनापूर्ति होते हुए भी,वो मोक्ष का भागी होगा।

मैंने सारे मंत्रों की शक्तियों को राम नाम के समक्ष न्युनतर माना है।

तभी से राम से बडा राम का नाम माना जाता है,वो पत्थर भी तैर जातें है जिन पर श्रीराम का नाम लिखा रहता है। 

 मेरे प्रभु मेरे श्रीराम

सोमवार, 19 जुलाई 2021

राधारानी जी का पान बीड़ा


तीन साधू थे, यात्रा कर रहे थे यमुना किनारे.!

उसमें तीसरा साधू जो था वो बुढ़ा था, वृद्ध था, उसने कहा "भई हम इस गाँव के बाहर इस मन्दिर में आसन लगा के यहीं रहेंगे, 

तुम तो जवान हो, तुम भले जाओ".! तो दो जवान साधू आगे गये!

चलते- चलते संध्या हो गयी दोनों साधुओ ने सोचा अब बरसाना आ रहा है, राधा रानी का गाँव, क्या करेंगे ? मांगेंगे कहाँ ?

बोले मांगना कहाँ अपन तो राधा रानी के मेहमान हैं, खिलाएगी तो खा लेंगे नही तो मन्दिर में आरती के समय कहीं कुछ प्रसाद मिलेगा वो खा के पानी पी लेंगे.!

साधुओ ने मजाक- मजाक में कहा, वो साधू पहुंच गये बरसाना और बरसाना में तो आरती हुई, मन्दिर में उत्सव भी हुआ था.!

साधू बाबा बोले मांगेगें तो नही अपने तो राधा रानी के मेहमान है.! ऐसे करके साधू सो गये.! रात के ११ बजे राधा रानी मंदिर के पुजारी को राधा रानी ने ऐसा जगाया।

राधा रानी बोली "महेमान हमारे भूखे है, तू सो रहा है".!

अरे भई महेमान कौन है.?

दो साधू...

पुजारी के तो होश हवास उड़ गये, ये पुजारी उठे, सोये हुए साधुओ को उठाया "तुम, तुम राधा रानी के मेहमान हो क्या ?

साधु बोले "नही हम तो ऐसे ही, 

पुजारी बोले "नही आप बैठो" हाथ-पैर धोये, पत्तले लाये और अच्छे से अच्छा जो राधा रानी के मन्दिर का प्रसाद था, 

उत्सव का प्रसाद था जो भी था, लड्डू, रसगुल्ले, खीर-वीर बस टनाटन पक्की रसोई जिमाई.!

वो साधू थोडा टहल के बोले "राधा रानी हमने तो मज़ाक में कहा था तुमने सचमुच में हमको मेहमान बना लिया माँ" हे राधे मैया...

साधू राधा जी का चिंत्तन करते-करते सो गये, तो दोनों साधुओ को एक जैसा सपना आया.!

वो १२ साल की राधा रानी बोलती है, साधू बाबा भोजन तो कर लिया आपने, तृप्त तो हो गये, भूख तो मिट गयी ?

बोले "हाँ,

भोजन अच्छा तो रहा ?

बोले "हाँ,

भोजन, जल आपको सुखद लगे?

बोले "हाँ,

अब कोई और आवश्यकता है क्या ?

बोले "नही-नही मैया

राधा रानी बोली "देखो वो पुजारी डरा-डरा तुमको भोजन तो कराया लेकिन मेरा पान-बीड़े का प्रसाद देना भूल गया,

लो ये मैं पान-बीड़ा देती हूँ आपको.! ऐसा कहकर उसने सिरहाने पर रखा.!

सपने में देख रहे हैं के राधा रानी सिरहाने पान- बीड़ा रख रही हो ऐसा करके उनकी आँख खुल गयी.!

देखा तो सचमुच में पान- बीड़ा  दोनों साधुओ के सिरहाने पड़ा है।

जय जय श्री राधे 

शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

भगवान को क्यों लेना पडा मत्स्य अवतार ?

मत्स्य अवतार भगवान विष्णु के प्रथम अवतार है। मछली के रूप में अवतार लेकर भगवान विष्णु ने एक ऋषि को सब प्रकार के जीव-जन्तु एकत्रित करने के लिये कहा और पृथ्वी जब जल में डूब रही थी, तब मत्स्य अवतार में भगवान ने उस ऋषि की नाव की रक्षा की। इसके पश्चात ब्रह्मा ने पुनः जीवन का निर्माण किया। 

एक दूसरी मन्यता के अनुसार एक राक्षस ने जब वेदों को चुरा कर सागर की अथाह गहराई में छुपा दिया, तब भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारण करके वेदों को प्राप्त किया और उन्हें पुनः स्थापित किया। 

एक बार ब्रह्माजी की असावधानी के कारण एक बहुत बड़े दैत्य ने वेदों को चुरा लिया। उस दैत्य का नाम हयग्रीव था। वेदों को चुरा लिए जाने के कारण ज्ञान लुप्त हो गया। चारों ओर अज्ञानता का अंधकार फैल गया और पाप तथा अधर्म का बोलबाला हो गया। तब भगवान विष्णु ने धर्म की रक्षा के लिए मत्स्य रूप धारण करके हयग्रीव का वध किया और वेदों की रक्षा की। भगवान ने मत्स्य का रूप किस प्रकार धारण किया। 

कल्पांत के पूर्व एक पुण्यात्मा राजा तप कर रहा था। राजा का नाम सत्यव्रत था। सत्यव्रत पुण्यात्मा तो था ही, बड़े उदार हृदय का भी था। प्रभात का समय था। सूर्योदय हो चुका था। सत्यव्रत कृतमाला नदी में स्नान कर रहा था। उसने स्नान करने के पश्चात जब तर्पण के लिए अंजलि में जल लिया, तो अंजलि में जल के साथ एक छोटी-सी मछली भी आ गई। 

सत्यव्रत ने मछली को नदी के जल में छोड़ दिया। मछली बोली- राजन! जल के बड़े-बड़े जीव छोटे-छोटे जीवों को मारकर खा जाते हैं। अवश्य कोई बड़ा जीव मुझे भी मारकर खा जाएगा। कृपा करके मेरे प्राणों की रक्षा कीजिए। 

सत्यव्रत के हृदय में दया उत्पन्न हो उठी। उसने मछली को जल से भरे हुए अपने कमंडलु में डाल लिया। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। एक रात में मछली का शरीर इतना बढ़ गया कि कमंडलु उसके रहने के लिए छोटा पड़ने लगा। 

दूसरे दिन मछली सत्यव्रत से बोली- राजन! मेरे रहने के लिए कोई दूसरा स्थान ढूंढ़िए, क्योंकि मेरा शरीर बढ़ गया है। मुझे घूमने-फिरने में बड़ा कष्ट होता है। सत्यव्रत ने मछली को कमंडलु से निकालकर पानी से भरे हुए मटके में रख दिया।

 यहाँ भी मछली का शरीर रात भर में ही मटके में इतना बढ़ गया कि मटका भी उसके रहने कि लिए छोटा पड़ गया। दूसरे दिन मछली पुनः सत्यव्रत से बोली- राजन! मेरे रहने के लिए कहीं और प्रबंध कीजिए, क्योंकि मटका भी मेरे रहने के लिए छोटा पड़ रहा है।

 तब सत्यव्रत ने मछली को निकालकर एक सरोवर में डाल किया, किंतु सरोवर भी मछली के लिए छोटा पड़ गया। इसके बाद सत्यव्रत ने मछली को नदी में और फिर उसके बाद समुद्र में डाल दिया। Mann Mandir YouTube channel

 आश्चर्य! समुद्र में भी मछली का शरीर इतना अधिक बढ़ गया कि मछली के रहने के लिए वह छोटा पड़ गया। अतः मछली पुनः सत्यव्रत से बोली- राजन! यह समुद्र भी मेरे रहने के लिए उपयुक्त नहीं है। मेरे रहने की व्यवस्था कहीं और कीजिए। 

अब सत्यव्रत विस्मित हो उठा। उसने आज तक ऐसी मछली कभी नहीं देखी थी। वह विस्मय-भरे स्वर में बोला- मेरी बुद्धि को विस्मय के सागर में डुबो देने वाले आप कौन हैं? 

मत्स्य रूपधारी श्रीहरि ने उत्तर दिया- राजन! हयग्रीव नामक दैत्य ने वेदों को चुरा लिया है। जगत में चारों ओर अज्ञान और अधर्म का अंधकार फैला हुआ है। 

मैंने हयग्रीव को मारने के लिए ही मत्स्य का रूप धारण किया है। आज से सातवें दिन पृथ्वी प्रलय के चक्र में फिर जाएगी। समुद्र उमड़ उठेगा। भयानक वृष्टि होगी। सारी पृथ्वी पानी में डूब जाएगी। जल के अतिरिक्त कहीं कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होगा। आपके पास एक नाव पहुँचेगी। 

आप सभी अनाजों और औषधियों के बीजों को लेकर सप्त ऋषियों के साथ नाव पर बैठ जाइएगा। मैं उसी समय आपको पुनः दिखाई पड़ूँगा और आपको आत्मतत्त्व का ज्ञान प्रदान करूँगा। सत्यव्रत उसी दिन से हरि का स्मरण करते हुए प्रलय की प्रतीक्षा करने लगे। सातवें दिन प्रलय का दृश्य उपस्थित हो उठा। 

समुद्र भी उमड़कर अपनी सीमाओं से बाहर बहने लगा। भयानक वृष्टि होने लगी। थोड़ी ही देर में सारी पृथ्वी पर जल ही जल हो गया। संपूर्ण पृथ्वी जल में समा गई। उसी समय एक नाव दिखाई पड़ी। सत्यव्रत सप्त ऋषियों के साथ उस नाव पर बैठ गए। उन्होंने नाव के ऊपर संपूर्ण अनाजों और औषधियों के बीज भी भर लिए। 

नाव प्रलय के सागर में तैरने लगी। प्रलय के उस सागर में उस नाव के अतिरिक्त कहीं भी कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। सहसा मत्स्य रूपी भगवान प्रलय के सागर में दिखाई पड़े।

 सत्यव्रत और सप्त ऋषि गण मतस्य रूपी भगवान की प्रार्थना करने लगे भगवान से आत्मज्ञान पाकर सत्यव्रत का जीवन धन्य हो उठा। वे जीते जी ही जीवन मुक्त हो गए। प्रलय का प्रकोप शांत होने पर मत्स्य रूपी भगवान ने हयग्रीव को मारकर उससे वेद छीन लिए।

 भगवान ने ब्रह्माजी को पुनः वेद दे दिए। इस प्रकार भगवान ने मत्स्य रूप धारण करके वेदों का उद्धार तो किया ही, साथ ही संसार के प्राणियों का भी अमित कल्याण किया।

जय श्री हरि

श्री गोवर्धन नाथ जी कथा

गोवर्धन द्रौंण पर्वत की श्रृंखला है। ऋषि पुलस्त्य ( जो रावण के पितामह थे ) तीर्थाटन भ्रमण करते करते द्रौंणाचल पहुंचे उन्हें ये द्रौंण की पुत्र श्रृंखला बहुत  रमणीक लगी अत: उन्होंने द्रौंण पर्वत के इस पुत्र को काशी साथ ले जाने की याचना कर स्वीकृति ले ली । किन्तु गोवर्धन पर्वत को द्वापर में अपने और श्री कृष्ण के मिलन संयोग का आभास होने से उन्होंने पुलस्त्य के सामने एक प्रस्ताव रख प्रतिज्ञा करा ली कि आप मुझे अति शीघ्र ले जायेंगे,रास्ते में कहीं रुकेंगे नहीं और न मुझे रखेंगे, यदि बीच में कहीं रख देंगे तो फिर मैं अचल हो जाऊंगा। ऋषि ने वचन दे दिया।

फिर क्या था गोवर्धन को अपना मनोरथ पूर्ण होते दीखा।

जैसे ही वे वर्तमान ब्रज भूमि के निकट पहुंच ने वाले थे कि गोवर्धन ने अपना भार बढ़ा दिया इस कारण ऋषि को लघुशंका का वेग सताने लगा और वो उस समय अपनी प्रतिज्ञा भूल गये, उन्होंने ने गोवर्धन को वहां रखकर लघुशंका निवृत्ति ,शुद्धि उपरान्त गोवर्धन को पुन: उठाने का प्रयास किया। किन्तु गोवर्धन प्रतिज्ञा स्मरण कराके किंचित मात्र भी हिलने को तैयार न हुए, ऋषि ने बहुत मनुहार की,सारे प्रयत्न असफल होने पर ऋषि ने क्रोधित हो प्रति दिन तिल के बराबर घटने का श्राप दे दिया।

श्री कृष्ण के परम भक्त ने उसे सादर स्वीकार कर लिया।

 तदुपरान्त बहुत  समय पश्चात् भगवान राम के द्वारा जब समुद्र पर सेतु निर्माण हो रहा था, बहुत से पर्वतों लाया जा रहा था, तब श्री हनुमानजी ने गोवर्धन के मना करने पर यह कह कर इस पर्वत को उखाड़ लिया कि तुम्हें मैं भगवान के साक्षात् दर्शन कराऊंगा किन्तु तभी उनको संदेश मिला कि सेतु निर्माण का कार्य पूर्ण चुका है अब और पर्वतों की आवश्यकता नहीं,तो उन्होंने गोवर्धन को पुनः वहीं स्थापित कर दिया।

किन्तु गोवर्धन ने उनकी पूंछ पकड़ कर उन्हें रोक लिया( वही श्रीहनुमान जी का स्वरूप आज "पूंछरी लौठा रूप में विद्यमान है) और कहा- आपके वचन का क्या हुआ , मुझे भगवान् के साक्षात्  दर्शन कैसे कराओगे ?

तब हनुमानजी ने भगवान राम से अपने वचन मिथ्या होने की समस्या कही।

प्रभु श्रीराम ने कहा कि  गोवर्धन को मेरा संदेश दे दो कि मैं द्वापर युग में उनकी श्रीकृष्ण रूप में ये कामना अवश्य पूर्ण करूंगा।

ऐसे हैं भगवद्भक्त,कृष्ण स्वरूप श्री गोवर्धन नाथ जी जिन्होंने प्रभु सांनिध्य प्राप्ति हेतु युगों- युगों तक प्रतीक्षा, तपस्या की।

"श्री गोवर्धन नाथ की जय"

गुरुवार, 15 जुलाई 2021

श्रीराम के बालरूप के दर्शन के लिए शंकरजी की मदारी-वानर लीला!

जेहि सरीर रति राम सों सोइ आदरहिं सुजान।
रुद्रदेह तजि नेहबस बानर भे हनुमान।। 

अर्थात्–सज्जन उसी शरीर का आदर करते हैं, जिसे श्रीराम से प्रेम हो। इसी स्नेहवश रुद्र देह त्यागकर हनुमान ने वानर का शरीर धारण किया।

भगवान शंकर और श्रीरामजी में अनन्य प्रेम है। जब-जब भगवान पृथ्वी पर अवतरित होते हैं, तब-तब भोले-भण्डारी भी अपने आराध्य की मनमोहिनी लीला के दर्शन के लिए पृथ्वी पर उपस्थित हो जाते हैं। भगवान शंकर एक अंश से अपने आराध्य श्रीराम की लीला में सहयोग करते हैं और दूसरे रूप में उनकी लीलाओं को देखकर मन-ही-मन प्रसन्न होते हैं।

एक बार कैलासपर्वत पर भगवान शंकर ने पार्वतीजी से कहा–’जिनके नामों को मैं रात-दिन रटता रहता हूँ, वे ही मेरे प्रभु अवतार धारण करके संसार में आ रहे हैं। सभी देवता उनके साथ अवतार-ग्रहणकर उनकी सेवा करना चाहते हैं, तब मैं ही उससे क्यों वंचित रहूँ? मैं भी वहीं चलूं और उनकी सेवा करके अपनी युगों की लालसा पूरी करूं।’

एक दिन पार्वती जी ने कुछ सोचकर कहा–’भगवान का अवतार रावण को मारने के लिए हो रहा है और रावण आपका अनन्य भक्त है। उसने अपने सिरों को काटकर आपको अर्पित किया है। ऐसी स्थिति में आप उसे मारने के कार्य में कैसे सहयोग कर सकते हैं?’

भगवान शंकर ने हंसते हुए कहा–’जैसे रावण ने मेरी भक्ति की है, वैसे ही उसने मेरे एक अंश की अवहेलना भी की है। मैं ग्यारह स्वरूपों (एकादश रुद्र) में रहता हूँ। जब उसने अपने दस सिर अर्पित कर मेरी पूजा की थी तो एक अंश को बिना पूजा किए ही छोड़ दिया था। अब मैं उसी अंश से उसके विरुद्ध युद्ध करके अपने प्रभु की सेवा कर सकता हूँ। मैंने वायुदेवता के द्वारा अंजना के गर्भ से अवतार लेने का निश्चय किया है।’ इस प्रकार ग्यारहवें रुद्र ही हनुमानजी के रूप में अवतरित हुए।

भगवान सदाशिव ने केवल सती के शरीर का ही त्याग नहीं किया वरन् श्रीराम की सेवा के लिए स्वयं के शरीर का भी त्याग कर दिया। वानररूप हनुमान बनकर भगवान शंकर ने श्रीरामजी व उनके परिवार की ऐसी सेवा की, आज भी कर रहे हैं और भविष्य में भी अनन्तकाल तक करते रहेंगे, कि सभी को अपना ऋणी बना लिया।

जब श्रीराम ने दशरथनन्दन के रूप में कौसल्या के अंक में जन्म लिया तो अयोध्या के जन-जन में नित नूतन उत्साह छा गया। अयोध्यापुरी में नित नूतन महोत्सव होने लगे। अथाह अतिथियों का सैलाब अयोध्या की ओर उमड़ पड़ा। श्रीरामलला के दर्शन के लिए भोलेभण्डारी सहित विभिन्न देवता अवध में आए। ब्रह्मा आदि देवता तो भगवान का दर्शन-स्तुति कर वापस लौट गए; किन्तु शंकरजी का मन अपने आराध्य श्रीराम की शिशुक्रीड़ा की झांकी में ऐसा उलझा कि वे अवध की गलियों में विविध वेष बनाकर घूमने लगे। 

कभी वे राजा दशरथ के राजद्वार पर प्रभु-गुन गाने वाले गायक के रूप में, तो कभी भिक्षा मांगने वाले साधु के रूप में उपस्थित हो जाते थे। कभी भगवान के अवतारों की कथा सुनाने के बहाने प्रकाण्ड विद्वान बनकर राजमहल में पहुंच जाते।

वे काकभुशुण्डिजी के साथ बहुत समय तक अयोध्या की गलियों में घूम-घूमकर आनन्द लूटते रहे। एक दिन शंकरजी काकभुशुण्डि को बालक बनाकर और स्वयं त्रिकालदर्शी वृद्ध ज्योतिषी का वेष धारणकर शिशुओं का फलादेश बताने के बहाने अयोध्या के रनिवास में प्रवेश कर गए।

अवध आजु आगमी एकु आयो।
करतल निरखि कहत सब गुनगन, बहुतन्ह परिचौ पायो।।

माता कौसल्या ने जैसे ही शिशु श्रीराम को ज्योतिषी की गोद में बिठाया तो शंकरजी का रोम-रोम पुलकित हो उठा। वे बालक का हाथ देखने के बहाने कभी उनके कोमल करकमलों को सहलाते। कभी अपनी जटाओं से उनके रक्ताभ तलवों को थपथपाते और देवताओं के लिए भी दुर्लभ उन चरणकमलों का दर्शन कर परमानन्द में निमग्न हो जाते। इस प्रकार कभी वे अपने आराध्य का हाथ देखें, कभी सहलाएं, कभी चरणों को देखें और गोद में सहलाएं। इस बात को स्वयं शंकरजी पार्वतीजी से कहते हैं–

औरउ एक कहउँ निज चोरी।
सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी।।
कागभुसुंडि संग हम दोऊ।
मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ।।
परमानंद प्रेमसुख फूले।
बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले।।
यह सुभ चरित जान पै सोई।
कृपा राम कै जापर होई।।

भगवान शंकर बने स्वयं ही मदारी और स्वयं ही बंदर
अब दशरथनन्दन श्रीराम भाईयों सहित पैदल चलने लगे, फिर वे एक ही जगह कैसे रह सकते थे। जिधर मन आए उधर ही राजमहल के द्वार तक दौड़ लगाने लगे। एक बार उमापति भगवान शंकर मदारी के वेष में डमरु बजाते हुए अवध के राजमहल के द्वार पर पहुंचे। उनके साथ नाचने वाला एक सुन्दर बंदर भी था। मदारी और बंदर का खेल देखने के लिए राजमहल के द्वार पर लोगों की भीड़ जमा हो गई। डमरु की आवाज सुनकर श्रीराम सहित चारों भाई भी महल के द्वार पर आ गए। तभी मदारी ने जोर से डमरु बजाया और बंदर ने श्रीराम को देखकर दोनों हाथ जोड़ लिए। यह देखकर सभी भाईयों सहित श्रीराम हंसने लगे। मदारी जैसे निहाल हो गया। वह और भी जोर से डमरु बजाने लगा। डमरु की आवाज के साथ बंदर भी ठुमुक-ठुमुक कर नाचने लगा।। 

नाचने और नचाने वाले दोनों ही भगवान शंकर
भगवान शंकर एक अंश से वानररूप में अपने आराध्य के सामने नाच रहे थे और दूसरे अंश से स्वयं ही मदारी बनकर अपने को नचा रहे थे। सम्पूर्ण सृष्टि को नचाने वाले कौसल्यानन्दन श्रीराम नाच से मुग्ध होकर हाथ से ताली बजाकर प्रसन्न हो रहे थे।

अब भगवान ने लीला की। शिशु राम मचल उठे–’मुझे यह वानर चाहिए।’ मदारी तो यह चाहता ही था। अपने आराध्य के चरणों में रहने की अभिलाषा लेकर ही उसने वानररूप धरा था। महाराज दशरथ के पुत्र की कामना अधूरी कैसे रहती? अब उस वानर की डोर कौसल्यानन्दन के हाथ में थी।

अब तक भोलेनाथ बंदर के रूप में अपने को ही नचा रहे थे, परन्तु अब वह स्वयं नाच रहे थे और नचाने वाले थे अवधकिशोर श्रीराम। बंदर के सुख और आनन्द की सीमा न थी। अब मदारी अदृश्य हो गया; शायद अपनी समाधिवस्था में अपने आराध्य का दर्शन करने के लिए कैलासपर्वत चला गया था।

हनुमानजी को अपने स्वामी के समीप रहने का अवसर मिल गया। अब वे भगवान श्रीराम को जैसे सुख मिले, उनका मनोरंजन हो, वही करते थे। इस प्रकार कई वर्ष क्षण में ही बीत गए। 

एक दिन महर्षि विश्वामित्र श्रीराम को वन में ले जाने के लिए आए तब श्रीराम ने हनुमानजी को एकान्त में ले जाकर कहा–‘मेरे अंतरंग सखा हनुमान! मेरे पृथ्वी पर अवतरित होने का प्रमुख कार्य अब शुरु होने वाला है। अब मैं रावण का वध कर पृथ्वी पर धर्म की स्थापना करुंगा। मुझे इस कार्य में तुम्हारी सहायता चाहिए होगी। अत: तुम ऋष्यमूकपर्वत पर जाकर सुग्रीव से मित्रता कर लो। कुछ ही दिनों में मैं वहां आऊंगा। वहां तुम मुझसे सुग्रीव की मित्रता करवाकर वानर-भालुओं के साथ मेरे अवतार-कार्य में सहायता करना।’

हनुमानजी अपने आराध्य से दूर नहीं होना चाहते थे; किन्तु प्रभु की आज्ञा का पालन करने के लिए भरे मन से ऋष्यमूकपर्वत पर चले गए। यही ‘रामकाज’ है और इसी कार्य में सहायक होने के कारण हनुमानजी पूज्य हैं।

इस प्रकार भगवान शंकर ने कभी देवरूप से, कभी मनुष्यरूप से और कभी वानररूप हनुमान के रूप में श्रीराम की सेवा की और उपासकों के सामने अपने आराध्य की किस प्रकार सेवा की जाती है, किस प्रकार उन्हें प्राप्त किया जा सकता है–इसका उदाहरण प्रस्तुत किया।

प्रवनउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानघन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर।

श्री हरि के वाहन गरुड़जी की रोचक कथा!


गरुड़ देव के ये रहस्य आपको आश्चर्यचकित कर देंगे! आखिरकार भगवान विष्णु के वाहन गरूढ़ का क्या रहस्य है? क्यों हिन्दू में उनको विशेष महत्व दिया जाता है,क्या है उनके जन्म का रहस्य और कैसे वह एक पक्षी से भगवान बन गए??
   
गरूड़ भगवान के बारे में सभी जानते होंगे। यह भगवान विष्णु का वाहन हैं। भगवान गरूड़ को विनायक, नागान्तक, विष्णुरथ, खगेश्वर नाम से भी जाना जाता है। गरूड़ हिन्दू धर्म के साथ ही बौद्ध धर्म में भी महत्वपूर्ण पक्षी मान गया है। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार गरूड़ को सुपर्ण (अच्छे पंख वाला) कहा गया है। जातक कथाओं में भी गरूड़ के बारे में कई कहानियां हैं।

माना जाता है कि गरूड़ की एक ऐसी प्रजाति थी, जो बुद्धिमान मानी जाती थी और उसका काम संदेश और व्यक्तियों को इधर से उधर ले जाना होता था। कहते हैं कि यह इतना विशालकाय पक्षी होता था जो कि अपनी चोंच से हाथी को उठाकर उड़ जाता था।
 
गरूढ़ जैसे ही दो पक्षी रामायण काल में भी थे जिन्हें जटायु और सम्पाती कहा जाता था। ये दोनों भी दंडकारण्य क्षेत्र में रहते विचरण करते रहते थे। इनके लिए दूरियों का कोई महत्व नहीं था। स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे इसीलिए यहां एक मंदिर है।
 
पक्षियों में गरुड़ को सबसे श्रेष्ठ माना गया है। यह समझदार और बुद्धिमान होने के साथ-साथ तेज गति से उड़ने की क्षमता रखता है। गिद्ध और गरुड़ में फर्क होता है। संपूर्ण भारत में गरुड़ का ज्यादा प्रचार और प्रसार किसलिए है यह जानना जरूरी है। गरुड़ के बारे में पुराणों में अनेक कथाएं मिलती है। रामायण में तो गरुड़ का सबसे महत्वपूर्ण पात्र है। 
 
आखिरकार भगवान विष्णु के वाहन गरूढ़ का क्या रहस्य है? 

पक्षी तीर्थ :चेन्नई से 60 किलोमीटर दूर एक तीर्थस्थल है जिसे 'पक्षी तीर्थ' कहा जाता है। यह तीर्थस्थल वेदगिरि पर्वत के ऊपर है। कई सदियों से दोपहर के वक्त गरूड़ का जोड़ा सुदूर आकाश से उतर आता है और फिर मंदिर के पुजारी द्वारा दिए गए खाद्यान्न को ग्रहण करके आकाश में लौट जाता है। 

सैकड़ों लोग उनका दर्शन करने के लिए वहां पहले से ही उपस्थित रहते हैं। वहां के पुजारी के मुताबिक सतयुग में ब्रह्मा के 8 मानसपुत्र शिव के शाप से गरूड़ बन गए थे। उनमें से 2 सतयुग के अंत में, 2 त्रेता के अंत में, 2 द्वापर के अंत में शाप से मुक्त हो चुके हैं। कहा जाता है कि अब जो 2 बचे हैं, वे कलयुग के अंत में मुक्त होंगे।

गरुड़ हैं देव पक्षी :गरूड़ का जन्म सतयुग में हुआ था, लेकिन वे त्रेता और द्वापर में भी देखे गए थे। दक्ष प्रजापति की विनिता या विनता नामक कन्या का विवाह कश्यप ऋषि के साथ हुआ। विनिता ने प्रसव के दौरान दो अंडे दिए। एक से अरुण का और दूसरे से गरुढ़ का जन्म हुआ। अरुण तो सूर्य के रथ के सारथी बन गए तो गरुड़ ने भगवान विष्णु का वाहन होना स्वीकार किया।

सम्पाती और जटायु इन्हीं अरुण के पुत्र थे। बचपन में सम्पाती और जटायु ने सूर्य-मंडल को स्पर्श करने के उद्देश्य से लंबी उड़ान भरी। सूर्य के असह्य तेज से व्याकुल होकर जटायु तो बीच से लौट आए, किंतु सम्पाती उड़ते ही गए। 

सूर्य के निकट पहुंचने पर सूर्य के ताप से सम्पाती के पंख जल गए और वे समुद्र तट पर गिरकर चेतनाशून्य हो गए। चन्द्रमा नामक मुनि ने उन पर दया करके उनका उपचार किया और त्रेता में श्री सीताजी की खोज करने वाले वानरों के दर्शन से पुन: उनके पंख जमने का आशीर्वाद दिया।

पुराणों में भगवान गरूड़ के पराक्रम के बारे में कई कथाओं का वर्णन मिलता है। कहते हैं कि उन्होंने देवताओं से युद्ध करके उनसे अमृत कलश छीन लिया था। दरअस्ल, ऋषि कश्यप की कई पत्नियां थीं जिनमें से दो वनिता और कद्रू थी। 

ये दोनों ही बहने थी, जो एक दूसरे से ईर्ष्या रखती थी। दोनों के पुत्र नहीं थे तो पति कश्यप ने दोनों को पुत्र के लिए एक वरदान दे दिया। वनिता ने दो बलशाली पुत्र मांगे जबकि कद्रू ने हजार सर्प पुत्र रूप में मांगे जो कि अंडे के रूप में जन्म लेने वाले थे। सर्प होने के कारण कद्रू के हजार बेटे अंडे से उत्पन्न हुए और अपनी मां के कहे अनुसार काम करने लगे। 

दोनों बहनों में शर्त लग गई थी कि जिसके पुत्र बलशाली होंगे हारने वाले को उसकी दासता स्वीकार करनी होगी। इधर सर्प ने जो जन्म ले लिया था लेकिन वनिता के अंडों से अभी कोई पुत्र नहीं निकला था। इसी जल्दबाजी में वनिता ने एक अंडे को पकने से पहले ही फोड़ दिया। अंडे से अर्धविकसित बच्चा निकला जिसका ऊपर का शरीर तो इंसानों जैसा था लेकिन नीचे का शरीर अर्धपक्व था। इसका नाम अरुण था।
 
अरुण ने अपनी मां से कहा कि 'पिता के कहने के बाद भी आपने धैर्य खो दिया और मेरे शरीर का विस्तार नहीं होने दिया। इसलिए मैं आपको श्राप देता हूं कि आपको अपना जीवन एक सेवक के तौर पर बिताना होगा। अगर दूसरे अंडे में से निकला उनका पुत्र उन्हें इस श्राप से मुक्त ना करवा सका तो वह आजीवन दासी बनकर रहेंगी।'
 
भय से विनता ने दूसरा अंडा नहीं फोड़ा और पुत्र के शाप देने के कारण शर्त हार गई और अपनी छोटी बहन की दासी बनकर रहने लगी।

 बहुत लंबे काल के बाद दूसरा अंडा फूटा और उसमें से विशालकाय गरुड़ निकाला जिसका मुख पक्षी की तरह और बाकी शरीर इंसानों की तरह था। हालांकि उनकी पसलियों से जुड़े उनके विशालकाय पंक्ष भी थे। जब गरुड़ को यह पता चला कि उनकी माता तो उनकी ही बहन की दासी है और क्यों है यह भी पता चला, तो उन्होंने अपनी मौसी और सर्पों से इस दासत्व से मुक्ति के लिए उन्होंने शर्त पूछी।
 
सर्पो ने विनता की दासता की मुक्ति के लिए अमृत मंथन ने निकला अमृत मांग। अमृत लेने के लिए गरुड़ स्वर्ग लोक की तरफ तुरंत निकल पड़े। देवताओं ने अमृत की सुरक्षा के लिए तीन चरणों की सुरक्षा कर रखी थी, पहले चरण में आग की बड़े परदे बिछा ररखे थे। दूसरे में घातक हथियारों की आपस में घर्षण करती दीवार थी और अंत में दो विषैले सर्पो का पहरा। 

वहां तक भी पहुंचाने से पहले देवताओं से मुकाबला करना था। गरुड़ सब से भीड़ गए और देवताओं को बिखेर दिया। तब गरुड़ ने कई नदियों का जल मुख में ले पहले चरण की आग को बुझा दिया, अगले पथ में गरुड़ ने अपना रूप इतना छोटा कर लिया के कोई भी हथियार उनका कुछ न बिगाड़ सका और सांपों को अपने दोनों पंजो में पकड़कर उन्होंने अपने मुंह से अमृत कलश उठा लिया और धरती की ओर चल पड़े। 
 
लेकिन तभी रास्ते में भगवान विष्णु प्रकट हुए और गरुड़ के मुंह में अमृत कलश होने के बाद भी उसके प्रति मन में लालच न होने से खुश होकर गरुड़ को वरदान दिया की वो आजीवन अमर हो जाएंगे। तब गरुड़ ने भी भगवान को एक वरदान मांगने के लिए बोला तो भगवान ने उन्हें अपनी सवारी बनने का वरदान मांगा। इंद्र ने भी गरुड़ को वरदान दिया की वो सांपों को भोजन रूप में खा सकेगा इस पर गरुड़ ने भी अमृत सकुशल वापसी का वादा किया। 
 
अंत में गरुड़ ने सर्पों को अमृत सौंप दिया और भूमि पर रख कर कहा कि यह रहा अमृत कलश। मैंने यहां इसे लाने का अपना वादा पूरी किया और अब यह आपके सुपूर्द हुआ, लेकिन इसे पीने के आप सभी स्नान करें तो अच्छा होगा।
 
जब वे सभी सर्प स्नान करने गए तभी वहां अचानक से भगवान इंद्र पहुंचे और अमृत कलश को वापस ले गए। लेकिन कुछ बूंदे भूमि पर गिर गई जो घांस पर ठहर गई थी। सर्प उन बूंदों पर झपट पड़े, लेकिन उनके हाथ कुछ न लगा। इस तरह गरुड़ की शर्त भी पूरी हो गई और सर्पों को अमृत भी नहीं मिला।

त्रेता युग में :जब रावण के पुत्र मेघनाथ ने श्रीराम से युद्ध करते हुए श्रीराम को नागपाश से बांध दिया था, तब देवर्षि नारद के कहने पर गरूड़ ने नागपाश के समस्त नागों को खाकर श्रीराम को नागपाश के बंधन से मुक्त कर दिया था। भगवान राम के इस तरह नागपाश में बंध जाने पर श्रीराम के भगवान होने पर गरूड़ को संदेह हो गया था।
 
गरूड़ का संदेह दूर करने के लिए देवर्षि नारद उन्हें ब्रह्माजी के पास भेज देते हैं। ब्रह्माजी उनको शंकरजी के पास भेज देते हैं। भगवान शंकर ने भी गरूड़ को उनका संदेह मिटाने के लिए काकभुशुण्डिजी नाम के एक कौवे के पास भेज दिया। अंत में काकभुशुण्डिजी ने राम के चरित्र की पवित्र कथा सुनाकर गरूड़ के संदेह को दूर किया।
 
लोमश ऋषि के शाप के चलते काकभुशुण्डि कौवा बन गए थे। लोमश ऋषि ने शाप से मु‍क्त होने के लिए उन्हें राम मंत्र और इच्छामृत्यु का वरदान दिया। कौवे के रूप में ही उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन व्यतीत किया। वाल्मीकि से पहले ही काकभुशुण्डि ने रामायण गरूड़ को सुना दी थी। इससे पूर्व हनुमानजी ने संपूर्ण रामायण पाठ लिखकर समुद्र में फेंक दी थी। वाल्मीकि श्रीराम के समकालीन थे और उन्होंने रामायण तब लिखी, जब रावण-वध के बाद राम का राज्याभिषेक हो चुका था।

हनुमानजी ने तोड़ दिया था गरुड़ का अभिमान

भगवान श्रीकृष्ण को विष्णु का अवतार माना जाता है। विष्णु ने ही राम के रूप में अवतार लिया और विष्णु ने ही श्रीकृष्ण के रूप में। श्रीकृष्ण की 8 पत्नियां थीं- रुक्मणि, जाम्बवंती, सत्यभामा, कालिंदी, मित्रबिंदा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा। इसमें से सत्यभामा को अपनी सुंदरता और महारानी होने का घमंड हो चला था तो दूसरी ओर सुदर्शन चक्र खुद को सबसे शक्तिशाली समझता था और विष्णु वाहन गरूड़ को भी अपने सबसे तेज उड़ान भरने का घमंड था।

एक दिन श्रीकृष्ण अपनी द्वारिका में रानी सत्यभामा के साथ सिंहासन पर विराजमान थे और उनके निकट ही गरूड़ और सुदर्शन चक्र भी उनकी सेवा में विराजमान थे। बातों ही बातों में रानी सत्यभामा ने व्यंग्यपूर्ण लहजे में पूछा- हे प्रभु, आपने त्रेतायुग में राम के रूप में अवतार लिया था, सीता आपकी पत्नी थीं। क्या वे मुझसे भी ज्यादा सुंदर थीं?
 
भगवान सत्यभामा की बातों का जवाब देते उससे पहले ही गरूड़ ने कहा- भगवान क्या दुनिया में मुझसे भी ज्यादा तेज गति से कोई उड़ सकता है। तभी सुदर्शन से भी रहा नहीं गया और वह भी बोल उठा कि भगवान, मैंने बड़े-बड़े युद्धों में आपको विजयश्री दिलवाई है। क्या संसार में मुझसे भी शक्तिशाली कोई है? द्वारकाधीश समझ गए कि तीनों में अभिमान आ गया है। भगवान मंद-मंद मुस्कुराने लगे और सोचने लगे कि इनका अहंकार कैसे नष्ट किया जाए, तभी उनको एक युक्ति सूझी...
 
भगवान मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। वे जान रहे थे कि उनके इन तीनों भक्तों को अहंकार हो गया है और इनका अहंकार नष्ट होने का समय आ गया है। ऐसा सोचकर उन्होंने गरूड़ से कहा कि हे गरूड़! तुम हनुमान के पास जाओ और कहना कि भगवान राम, माता सीता के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। गरूड़ भगवान की आज्ञा लेकर हनुमान को लाने चले गए।
 
इधर श्रीकृष्ण ने सत्यभामा से कहा कि देवी, आप सीता के रूप में तैयार हो जाएं और स्वयं द्वारकाधीश ने राम का रूप धारण कर लिया।
 
तब श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र को आज्ञा देते हुए कहा कि तुम महल के प्रवेश द्वार पर पहरा दो और ध्यान रहे कि मेरी आज्ञा के बिना महल में कोई भी प्रवेश न करने पाए। सुदर्शन चक्र ने कहा, जो आज्ञा भगवान और भगवान की आज्ञा पाकर चक्र महल के प्रवेश द्वार पर तैनात हो गया।
 
गरूड़ ने हनुमान के पास पहुंचकर कहा कि हे वानरश्रेष्ठ! भगवान राम, माता सीता के साथ द्वारका में आपसे मिलने के लिए पधारे हैं। आपको बुला लाने की आज्ञा है। आप मेरे साथ चलिए। मैं आपको अपनी पीठ पर बैठाकर शीघ्र ही वहां ले जाऊंगा।
 
हनुमान ने विनयपूर्वक गरूड़ से कहा, आप चलिए बंधु, मैं आता हूं। गरूड़ ने सोचा, पता नहीं यह बूढ़ा वानर कब पहुंचेगा। खैर मुझे क्या कभी भी पहुंचे, मेरा कार्य तो पूरा हो गया। मैं भगवान के पास चलता हूं। यह सोचकर गरूड़ शीघ्रता से द्वारका की ओर उड़ चले।
 
लेकिन यह क्या? महल में पहुंचकर गरूड़ देखते हैं कि हनुमान तो उनसे पहले ही महल में प्रभु के सामने बैठे हैं। गरूड़ का सिर लज्जा से झुक गया। तभी श्रीराम के रूप में श्रीकृष्ण ने हनुमान से कहा कि पवनपुत्र तुम बिना आज्ञा के महल में कैसे प्रवेश कर गए? क्या तुम्हें किसी ने प्रवेश द्वार पर रोका नहीं?
 
हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए सिर झुकाकर अपने मुंह से सुदर्शन चक्र को निकालकर प्रभु के सामने रख दिया। हनुमान ने कहा कि प्रभु आपसे मिलने से मुझे क्या कोई रोक सकता है? इस चक्र ने रोकने का तनिक प्रयास किया था इसलिए इसे मुंह में रख मैं आपसे मिलने आ गया। मुझे क्षमा करें। भगवान मंद-मंद मुस्कुराने लगे।
 
अंत में हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए श्रीराम से प्रश्न किया, हे प्रभु! मैं आपको तो पहचानता हूं आप ही श्रीकृष्ण के रूप में मेरे राम हैं, लेकिन आज आपने माता सीता के स्थान पर किस दासी को इतना सम्मान दे दिया कि वह आपके साथ सिंहासन पर विराजमान है।
 
अब रानी सत्यभामा का अहंकार भंग होने की बारी थी। उन्हें सुंदरता का अहंकार था, जो पलभर में चूर हो गया था। रानी सत्यभामा, सुदर्शन चक्र व गरूड़ तीनों का गर्व चूर-चूर हो गया था। वे भगवान की लीला समझ रहे थे। तीनों की आंखों से आंसू बहने लगे और वे भगवान के चरणों में झुक गए। भगवान ने अपने भक्तों के अंहकार को अपने भक्त हनुमान द्वारा ही दूर किया। अद्भुत लीला है प्रभु की। ||जय श्री राम ||

बुधवार, 14 जुलाई 2021

क्या हुआ जब भगवान भोलेनाथ ने अपने पांचों त्रिनेत्र एकसाथ खोल दिए?


।।अद्भुत प्रसंग श्रीरामचरितमानस में श्रीराम विवाह से।।

जब राघवेन्द्र सरकार दूल्हा बने तो सभी देवगण सुंदर मंगल का अवसर जानकर, नगाड़े बजा-बजाकर फूल बरसाते हैं। और श्रीराम जी का विवाह देखने के लिए...!

"प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू चले बिलोकन राम बिआहू"

सब देव स्वर्ग लोक से जनकपुरी के लिए चल पड़े,तो जब सब देव चले तो फिर महादेव जी पीछे क्यों...? भोले बाबा पार्वती से बोले! देवी हम भी जाएंगे। पार्वती बोलीं hey naath आप तो रहने ही दो! क्योंकि यदि आपने रामजी के दर्शन की लालसा में अपने सब नेत्र खोल दिए तो तीसरा नेत्र खुलते ही आग बरसनी सुरु हो जाएगी। और रंग में भंग पड़ जाएगा।

भोले बाबा बोले! देवी आप को पता नहीं होगा..! मेरा यह तीसरा नेत्र आग ही नहीं जल भी बरसाता है,जब इसके आगे काम हो तो,आग की ज्वाला,और जब इसके आगे राम हो तो अनुराग का जल (प्रेमाश्रु) बरसाने लगता है। अर्थात....!

"प्रेम भगति जल बिनु रघुराई"
"अमिअंतर मल कबहुं न जाई"

परमात्मा की प्रेमपूर्ण भक्ति रूपी जल के बिना हृदय का मैल कभी नही जा सकता है।

बड़ा सुन्दर और मार्मिक प्रसंग है, कि ये तीसरा नेत्र क्या है...? ऋषियों,मुनियों एवं योगियों कि मान्यता है कि तीसरा नेत्र दोनों भौहों के मध्य होता है। और हमारे तो दो ही आंख है,एक दाईं और दूसरी बाईं संकेत बहुत सुंदर है। जो हमारे अनुकूल है वो हमारे दाहिने है,और जो हमारे प्रतिकूल है,वो हमारे बाएं है।हमारे पास तो दो ही दृष्टि है।
 
एक अनुकूलता की,और दूसरी प्रतिकूलता की। जो हमारे अनुकूल है,उनसे हमारा राग है,और जो हमारे प्रतिकूल है उनसे हमारा द्वेष है। हमारे तो दो ही दृष्टि है,राग की और द्वेष की, हम संसार को राग और द्वेष की ही दृष्टि से देखते है।

और जो ये तीसरी दृष्टि है वो दोनों के मध्य में है,अर्थात जो न तो राग से प्रभावित हो और न ही द्वेष से प्रभावित हो। जो राग और द्वेष दोनों से ही तटस्थ रहे,वो शिव की दृष्टि है। जिससे भगवान को देखाजा सकता है,भगवान को न तो राग की दृष्टि से देखा जा सकता है,और न ही द्वेष की दृष्टि से देखा जा सकता है। भगवान को तो सिर्फ प्रेम और भाव की दृष्टि से ही देखा जा सकता है।

पार्वती जी बोलीं! प्रभु हमें आप की बात समझ में नहीं आरही है,शिवजी ने कहा! देवी तो चलकर ही देखलो न,और भोलेनाथ मां पार्वती के साथ जब रामजी की बरात में पहुंचे तो,राघव जी के दूल्हा स्वरूप को देखने के लिए शिवजी ने अपने तीसरे नेत्र को भी खोल दिया।

"संकरु राम रूप अनुरागे" "नयन पंचदस अति प्रिय लागे"

अब सोचो पंचमुखी शिवजी के पंद्रह नेत्र तो तब होंगे, जब राघव जी के दर्शन के लिए दश नेत्रों के साथ-साथ पांच तीसरा नेत्र भी खुला होगा! लेकिन जब पांचों तीसरे नेत्र खुले तो हुआ क्या...?

"राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि"
"पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि"

नख से शिखा तक श्री रामचन्द्रजी के सुंदर दूल्हा स्वरूप को बार-बार देखते हुए पार्वतीजी सहित श्री शिवजी का शरीर पुलकित हो गया,और अग्नि की ज्वाला की जगह उनके नेत्र से अनुराग का वारि,प्रेम का जल बरसने लगा,आंखें प्रेमाश्रुओं के जल से भर गईं।

शिवजी बोले देवी अब तो खुश हो...! मेरे नेत्रों ने आग नहीं बरसायी,पार्वती जी बोली कि भोलनथ,बात तो आप की सत्य निकली। लेकिन जैसे ही देवी पार्वती की दृष्टि उस घोड़े पर पड़ी जिसपर श्रीरामजी दूल्हा स्वरूप में सवार थे, पार्वती जी बोल पड़ीं,प्रभु आप तो सिर्फ दूल्हे को ही देखना,दूल्हे की सवारी की ओर तो बिल्कुल देखना ही मत,नहीं तो आप का तीसरा नेत्र आग बरसाने लगेगा...!

सवार का कुछ न बिगड़े,और सवारी का ही बिगड़ जाए। रंग में भाग तो तब भी पड़ जाएगा। लेकिन क्यों...! मेरा नेत्र अश्व को देख कर आग क्यों बरसने लगेगा...! क्योंकि जिस घोड़े पर राघव जी सवारी किए हुए हैं,वो तो पूरा कामदेव ही है। पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं....!

"जेहि तुरंग पर रामु बिराजे"
"बाजि बेषु जनु काम बनावा"

जिस घोड़े पर श्री रामजी विराजमान हैं, मानो कामदेव ने ही उस घोड़े का वेष धारण कर लिया हो।

पार्वती जी की बात सुनकर शंकर जी मुस्कुराए,बोले देवी, उस काम,और इस काम में बहुत अन्तर है,वह काम "आम" पर बैठा था,और इस काम पर "श्रीराम" बैठे हैं,वह काम स्वच्छंद था,पर यह काम स्वतंत्र है,लेकिन स्वच्छंद नहीं।

व्यावहारिक जीवन में समाज में काम की स्वतंत्रता रहे तो वंदनीय है,काम तो निंदनीय तब होता है,जब वह स्वच्छंद हो जाता है,जिसकी कोई मर्यादा नहीं रह जाती। वह काम तो आम पे बैठा था,और स्वच्छंद था,लेकिन इसपे तो राम बैठे है,और इसके लगाम लगी हुई है,और इस काम की लगाम श्रीराम के हाथ में है।धन्य है ऐसा काम जिसकी लगाम श्रीराम के हाथ में हो....!

एक अनुरोध सभी श्रोताओं से के जो भी कार्य आप करते है उसे प्रभु श्रीराम के हाथ में दे दीजाए। कामना रहित होकर निष्काम भाव से प्रभु को समर्पित करते हुए,समर्पण भाव से जो कार्य होगा,उससे ही अपना,समाज और देश का कल्याण होगा।

धन कितना आयेगा पता नहीं पर घर में कभी गरीबी नहीं आयेगी


धन कितना आयेगा पता नहीं पर घर में कभी गरीबी नहीं आयेगी , रामायण की इन आठ चौपाईयों का नित्य पाठ करें!!!!! 

जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥
भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहिं सुख बारी॥

भावार्थ:-जब से श्री रामचन्द्रजी विवाह करके घर आए, तब से (अयोध्या में) नित्य नए मंगल हो रहे हैं और आनंद के बधावे बज रहे हैं। चौदहों लोक रूपी बड़े भारी पर्वतों पर पुण्य रूपी मेघ सुख रूपी जल बरसा रहे हैं॥

रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥
मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥

भावार्थ:-ऋद्धि-सिद्धि और सम्पत्ति रूपी सुहावनी नदियाँ उमड़-उमड़कर अयोध्या रूपी समुद्र में आ मिलीं। नगर के स्त्री-पुरुष अच्छी जाति के मणियों के समूह हैं, जो सब प्रकार से पवित्र, अमूल्य और सुंदर हैं॥

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥
सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥

भावार्थ:-नगर का ऐश्वर्य कुछ कहा नहीं जाता। ऐसा जान पड़ता है, मानो ब्रह्माजी की कारीगरी बस इतनी ही है। सब नगर निवासी श्री रामचन्द्रजी के मुखचन्द्र को देखकर सब प्रकार से सुखी हैं॥

मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥
राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥

भावार्थ:-सब माताएँ और सखी-सहेलियाँ अपनी मनोरथ रूपी बेल को फली हुई देखकर आनंदित हैं। श्री रामचन्द्रजी के रूप, गुण, शील और स्वभाव को देख-सुनकर राजा दशरथजी बहुत ही आनंदित होते हैं॥ ||जय श्री राम ||

जानिए भगवान शिव के गले में लिपटे नाग का नाम और अन्य रहस्य क्या है?

भारत में नागकुल और नागों के रहस्य को सुलझाना अत्यंत ही कठिन है। क्या पहले सर्पमानव होते थे या कि सर्प जातियों के नाम के आधार पर ही मानव की जातियों का निर्माण हुआ? कुछ भी हो लेकिन यह तो तय है कि सभी नाग प्रजातियां भगवान शिव की भक्त थीं। उनका धर्म भी शैव धर्म ही था।

वासुकि के उल्लेखनीय कार्य : वासुकि भगवान शिव के परम भक्त थे। माना जाता है कि नाग जाति के लोगों ने ही सर्वप्रथम शिवलिंग की पूजा का प्रचलन शुरू किया था। वासुकि की भक्ति से प्रसन्न होकर ही भगवान शिव ने उन्हें अपने गणों में शामिल कर लिया था। वासुकी को नागलोक का राजा माना गया है।

समुद्र मंथन के दौरान वासुकि नाग को ही रस्सी के रूप में मेरू पर्वत के चारों और लपेटकर मंथन किया गया था, जिसके चलते उनका संपूर्ण शरीर लहूलुहान हो गया था। जब भगवान श्री कृष्ण को कंस की जेल से चुपचाप वसुदेव उन्हें गोकुल ले जा रहे थे तब रास्ते में जोरदार बारिश हो रही थी। इसी बारिश और यमुना के उफान से वासुकी नाग ने ही श्री कृष्क्ष की रक्षा की थी। वेबदुनिया के शोधानुसार वासुकी ने ही कुंति पुत्र भीम को दस हजार हाथियों के बल प्राप्ति का वरदान दिया था। वासुकी के सिर पर ही नागमणि होती थी।

कैसे उत्पत्ति हुई नागों की : पुराणों अनुसार सभी नागों की उत्पत्ति ऋषि कश्यप की पत्नि कद्रू की कोख से हुई है। कद्रू ने हजारों पुत्रों को जन्म दिया था जिसमें प्रमुख नाग थे- अनंत (शेष), वासुकी, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख, पिंगला और कुलिक। कद्रू दक्ष प्रजापति की कन्या थीं।
अनंत (शेष), वासुकी, तक्षक, कार्कोटक और पिंगला- उक्त पांच नागों के कुल के लोगों का ही भारत में वर्चस्व था। यह सभी कश्यप वंशी थे। इन्ही से नागवंश चला। 

पुराणों के शोधानुसार नाग वंशावलियों में ‘शेष नाग’ को नागों का प्रथम राजा माना जाता है। शेष नाग को ही ‘अनंत’ नाम से भी जाना जाता है। इसी तरह आगे चलकर शेष के बाद वासुकी हुए फिर तक्षक और पिंगला। वासुकी ने भगवान शिव की सेवा में नियुक्ति होना स्वीकार किया।

वासुकी का कैलाश पर्वत के पास ही राज्य था और मान्यता है कि तक्षक ने ही तक्षकशिला (तक्षशिला) बसाकर अपने नाम से ‘तक्षक’ कुल चलाया था। उक्त तीनों की गाथाएं पुराणों में पाई जाती हैं। शेषनाग (अनंत) को भगवान विष्णु की सेवा का अवसर मिला।

एक सिद्धांत अनुसार ये मूलत: कश्मीर के थे। कश्मीर का ‘अनंतनाग’ इलाका इनका गढ़ माना जाता था। कांगड़ा, कुल्लू व कश्मीर सहित अन्य पहाड़ी इलाकों में नाग ब्राह्मणों की एक जाति आज भी मौजूद है। महाभारत काल में पूरे भारत वर्ष में नागा जातियों के समूह फैले हुए थे। विशेष तौर पर कैलाश पर्वत से सटे हुए इलाकों से असम, मणिपुर, नागालैंड तक इनका प्रभुत्व था। ये लोग सर्प पूजक होने के कारण नागवंशी कहलाए। कुछ विद्वान मानते हैं कि शक या नाग जाति हिमालय के उस पार की थी। अब तक तिब्बती भी अपनी भाषा को ‘नागभाषा’ कहते हैं।

उनके बाद ही कर्कोटक, ऐरावत, धृतराष्ट्र, अनत, अहि, मनिभद्र, अलापत्र, कम्बल, अंशतर, धनंजय, कालिया, सौंफू, दौद्धिया, काली, तखतू, धूमल, फाहल, काना इत्यादी नाम से नागों के वंश हुआ करते थे। भारत के भिन्न-भिन्न इलाकों में इनका राज्य था।

अथर्ववेद में कुछ नागों के नामों का उल्लेख मिलता है। ये नाग हैं श्वित्र, स्वज, पृदाक, कल्माष, ग्रीव और तिरिचराजी नागों में चित कोबरा (पृश्चि), काला फणियर (करैत), घास के रंग का (उपतृण्य), पीला (ब्रम), असिता रंगरहित (अलीक), दासी, दुहित, असति, तगात, अमोक और तवस्तु आदि।
‘नागा आदिवासी’ का संबंध भी नागों से ही माना गया है। छत्तीसगढ़ के बस्तर में भी नल और नाग वंश तथा कवर्धा के फणि-नाग वंशियों का उल्लेख मिलता है। पुराणों में मध्यप्रदेश के विदिशा पर शासन करने वाले नाग वंशीय राजाओं में शेष, भोगिन, सदाचंद्र, धनधर्मा, भूतनंदि, शिशुनंदि या यशनंदि आदि का उल्लेख मिलता है। 

पुराणों अनुसार एक समय ऐसा था जबकि नागा समुदाय पूरे भारत (पाक-बांग्लादेश सहित) के शासक थे। उस दौरान उन्होंने भारत के बाहर भी कई स्थानों पर अपनी विजय पताकाएं फहराई थीं। तक्षक, तनक और तुश्त नागाओं के राजवंशों की लम्बी परंपरा रही है। इन नाग वंशियों में ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि सभी समुदाय और प्रांत के लोग थे।

नागवंशियों ने भारत के कई हिस्सों पर राज किया था। इसी कारण भारत के कई शहर और गांव ‘नाग’ शब्द पर आधारित हैं। मान्यता है कि महाराष्ट्र का नागपुर शहर सर्वप्रथम नागवंशियों ने ही बसाया था।

वहां की नदी का नाम नाग नदी भी नागवंशियों के कारण ही पड़ा। नागपुर के पास ही प्राचीन नागरधन नामक एक महत्वपूर्ण प्रागैतिहासिक नगर है। महार जाति के आधार पर ही महाराष्ट्र से महाराष्ट्र हो गया। महार जाति भी नागवंशियों की ही एक जाति थी। 

इसके अलावा हिंदी भाषी राज्यों में ‘नागदाह’ नामक कई शहर और गांव मिल जाएंगे। उक्त स्थान से भी नागों के संबंध में कई किंवदंतियां जुड़ी हुई हैं। नगा या नागालैंड को क्यों नहीं नागों या नागवंशियों की भूमि माना जा सकता है।

भगवान जगन्नाथ के महाप्रसाद की कथा

 


अधिकांशतः लोग सोचते हैं कि भगवान का महाप्रसाद सदा सदा से इस संसार में मिलता आया है। परन्तु नीचे वर्णित लीला से पहले भगवान विष्णु का महाप्रसाद इस भौतिक संसार में उपलब्ध नहीं था , शिवजी तथा नारदमुनी जैसे ऋषियों के लिए भी नहीं। फिर कैसे महाप्रसाद इस संसार में आया ? इस सम्बन्ध में चैतन्य मंगल में एक कथा आती है। 

एक दिन कैलाश पर्वत पर नारदमुनी की भेंट शिवजी से हुई। नारद मुनि उन्हें भगवान श्री कृष्ण और उद्धव के बीच वार्तालाप का वर्णन करने लगे। इस चर्चा में उद्धव भगवान के महाप्रसाद की महिमा गान करते हुए कहते हैं – 

“ हे भगवन! आपकी महाप्रसादी माला, सुगन्धित तेल , वस्त्रों और आभूषणों और आपके उच्छिष्ठ भोजन की स्वीकार करने से आपके भक्त आपकी मायाशक्ति पर विजय प्राप्त कर लेते है। “

“ हे कैलाशपति !” नारदमुनी ने आगे कहना जारी रखा , “ यह सुनकर मेरे ह्रदय में भगवान् विष्णु का महाप्रसाद चखने की तीव्र उत्कंठा जागृत हुई है। इस आशा से मैं वैकुण्ठ गया और जी जान से माता लक्ष्मी की सेवा करने लगा। बारह वर्षों तक सेवा करने के पश्चात् एक दिन लक्ष्मी जी ने मुझसे पुछा, ‘ नारद ! मै तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूँ। तुम मनचाहा वर मांग सकते हो। “ 

नारदजी ने हाथ जोड़कर कहा, “ हे माता ! चिरकाल से मेरा ह्रदय एक बात को लेकर पीड़ित है। मैंने आजतक कभी भगवान नारायण के महाप्रसाद का अस्वादन नहीं किया है। कृपया मेरी यह अभिलाषा पूरी कर दीजिये।“ 

लक्ष्मी देवी दुविधा में पड़ गई। “ लेकिन नारद , मेरे स्वामी ने मुझे कठोर निर्देश दिए है कि उनका महाप्रसाद किसी को भी न दिया जाए। मैं उनकी आज्ञा का उल्लंघन कैसे कर सकती हूं। परन्तु तुम्हारे लिए मैं अवश्य कुछ व्यवस्था करूंगी। “

कुछ समय पश्चात् लक्ष्मी देवी ने भगवान नारायण से अपने ह्रदय की बात कही की कैसे उन्होंने गलती से नारदमुनी को भगवान का महाप्रसाद देने का वचन दे दिया है। भगवान् नारायण ने कहा, “ हे प्रिये! तुम्हे बड़ी भरी गलती की है। परन्तु अब क्या किया जा सकता है। तुम नारदमुनी को मेरा महाप्रसाद दे सकती हो , परन्तु मेरी अनुपस्थिति में। “(इसीलिए भक्तों को भी  प्रसाद कभी भी अर्चा विग्रह के सामने बैठकर ग्रहण नहीं करना चाहिए)" 



नारदमुनी ने आगे कहा, “ हे महादेव , आप विश्वास नहीं करेंगे , महाप्रसाद के मात्र स्पर्श से मेरा तेज और अध्यात्मिक शक्ति सौ गुना बढ़ गईं। मैं दिव्य भाव का अनुभव करने लगा और सुनाने यहाँ आया हूँ । ” 

“ हे नारद ! निश्चित ही तुम्हारा तेज अलौकिक है परन्तु तुमने ऐसे दुर्लभ महाप्रसाद का एक कण भी मेरे लिए नहीं रखा। 

लज्जित होकर नारद मुनी ने अपना सर झुका लिया परन्तु अभी उन्हें स्मरण हुआ की उनके पास अभी भी थोडा महाप्रसाद बचा हुआ है। उन्होंने तुरंत उसे महादेव को  दिया जिसे उन्होंने अत्यंत सम्मानपूर्वक स्वीकार कर लिया। 

उसे लेते ही शिवजी कृष्ण प्रेम में मदोंन्मत होकर नृत्य करने लगे। उनकी थिरकन से पृथ्वी कम्पायमान होने लगी और सम्पूर्ण ब्रम्हांड में खतरा महसूस किया जाने लगा तब भयभीत होकर माता पृथ्वी देवी पार्वती से महादेव को शांत करने का निवेदन करती हैं। जैसे तैसे माता पार्वती ने शिवजी को शांत किया और फिर उनसे इस उन्मत नृत्य करने का कारण  जानना चाहा तो शिवजी ने कहा – देवी मेरे सौभाग्य की बात सुनो और सारा वृतांत सुना दिया और अंत में बोले आज भगवान का महाप्रसाद प्राप्त करके मैं  उन्मत हो गया यही मेरे असामान्य भाव और तेज का कारण है। तभी  माता पर्वती  क्रुद्ध हो गईं और बोली – स्वामी आपको महाप्रसाद मुझे भी देना चाहिए था क्या आप नहीं जानते मेरा नाम वैष्णवी है आज मैं प्रतिज्ञा लेती हूं कि यदि भगवान नारायण मुझ पर अपनी करुणा दिखायेंगे तो मैं प्रयास करुँगी की उनका महाप्रसाद ब्रम्हांड के प्रत्येक व्यक्ति, देवता और यहां तक की कुत्तों बिल्लियों को भी प्राप्त होगा। 

आश्चर्य जनक रूप से उसी क्षण भगवान विष्णु  माता पर्वती के वचन की रक्षा हेतु वहां तत्क्षण प्रकट हुए और बोले – “ हे देवी पर्वती ! तुम सदैव मेरी भक्ति में संलग्न रहती हो। उमा और महादेव मेरे शरीर से अभिन्न हो। मैं तुम्हें वचन देता हु की मैं स्वयं तुम्हारी प्रतिज्ञा को पूर्ण करूँगा और पुरुषोत्तम क्षेत्र जगन्नाथ पुरी में प्रकट होऊंगा और ब्रम्हांड में प्रत्येक जीव को अपना महाप्रसाद प्रदान करूंगा। 

आज भी जगन्नाथ पुरी में भगवान जगन्नाथ को भोग लगाने के पश्चात सर्व प्रथम प्रसाद  विमलादेवी(माता पार्वती ) के मंदिर में अर्पित किया जाता है।