जब मारीच स्वर्णमृग के रूप में सीताजी को दिखाई दिया और उन्होंने श्रीरामजी तथा लक्ष्मणजी को उसे दिखाया। देखते ही लक्ष्मणजी ने कहा-
‘‘अहं मन्ये मारीचं राक्षसं मृगम्
अनेन निहता राम राजानः कामरूपिणा।’’
अर्थात् यह मृग के रूप में राक्षस मारीच आया है, ऐसा मैं मानता हूँ। इसी इच्छाधारी राक्षस ने अनेक राजाओं का वध किया है। सीताजी ने उसे जीवित पकड़ कर लाने का आग्रह किया था, न कि मारकर लाने के लिये। यदि कहें कि जीवित ही पकड़ना था, तो धनुष बाण ले जाने की क्या आवश्यकता थी? इस विषय में मेरा मानना है कि मृग को दौड़कर हाथों से नहीं पकड़ा जा सकता, बल्कि मोहनास्त्र आदि के द्वारा बांध कर ही पकड़ा जा सकता है। इस कारण धनुष बाण लेकर गये। इसके साथ ही क्षत्रिय को निरस्त्र, निःशस्त्र रहना भी नहीं चाहिये। फिर उन्हें यह आशंका थी ही कि मृग मारीच है, तब तो सशस्त्र होकर जाना अनिवार्य ही था। जब श्रीरामजी उस मृग के पीछे चलने को उद्यत होते हैं, तब उन्होंने लक्ष्मणजी से कहा-
‘‘यदि वायं यथा यन्मां भवेद् वदसि लक्ष्मण।
मायैषा राक्षसस्येति कत्र्तव्योऽस्य वधो मया।।
एतेन हि नृशंसेन मारीचेना कृतात्मना।
वने विचरता पूर्वं हिंसिता मुनिपुंगवाः।’’
अर्थात् हे लक्ष्मण! तुम मुझसे जैसा कह रहे हो, यदि वैसा ही यह मृग हो, यदि राक्षसी माया ही हो, तो इसे मारना मेरा कर्तव्य है। Mann Mandir YouTube channel
क्योंकि इस दुष्ट ने मुनियों की हत्या की है। इससे स्पष्ट है कि श्रीरामजी ने उस जानवर को मारीच ही समझा था न कि स्वर्णमृग। हमें यह विचारना चाहिये कि लक्ष्मणजी उनके साथ सेवा हेतु ही आये थे। वे ही स्थान-स्थान पर कुटी व शय्या तैयार करते हैं, जल, कन्द, मूल, फल लाते हैं। तब यदि वह जानवर ही पकड़ना वा मारना था, तो क्या यह कार्य लक्ष्मणजी नहीं कर सकते थे? जो लक्ष्मणजी बड़े-बड़े योद्धाओं से घोर युद्ध करने में समर्थ थे, वे उस मृग को मार वा पकड़ नहीं सकते थे? तब क्यों श्रीरामजी यह साधारण काम करने हेतु स्वयं गये और लक्ष्मणजी को वहां सीताजी की रक्षार्थ नियुक्त किया? क्यों नहीं, सदैव सेवातत्पर अनुज लक्ष्मणजी को यह कार्य सौंपा? इससे स्पष्ट है कि श्रीरामजी स्थिति की गम्भीरता समझ रहे थे। मारीच के पराक्रम व माया को जानकर, लक्ष्मणजी को भेजकर, उन्हें संकट में नहीं डालना चाहते थे। उन्हें गम्भीर परिस्थितियों में अपने पौरुष का विश्वास था। इस प्रकार की परिस्थिति उस समय भी आयी थी, जब खर और दूषण ने 14 हजार राक्षसों की सेना लेकर आक्रमण कर दिया था। उस समय श्रीरामजी ने लक्ष्मणजी को युद्ध का आदेश न देकर स्वयं ही युद्ध किया था और लक्ष्मणजी को सीताजी की रक्षार्थ नियुक्त किया था। इसी प्रकार यहां भी यही परिस्थिति बनी थी। इस सब पर गम्भीरता से विचारने पर यह सिद्ध होता है कि श्रीरामजी शिकार हेतु नहीं बल्कि उसे मारीच जानकर घोर युद्ध करने गये थे। हम इस विषय की यथार्थता जानने हेतु रामायण के अन्य प्रसंगों पर भी दृष्टि डालें, तो पायेंगे कि उस काल में किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं होती थी, सिवा दुष्ट दमनार्थ युद्ध के। जिस समय महात्मा भरतजी चित्रकूट में श्रीरामजी से मिलने आते हैं, तब श्रीरामजी ने मिलते ही उन्हें कुशलक्षेम पूछते हुये सम्पूर्ण राजनीति का उपदेश किया है। उसमें एक बिन्दु आता है, जिसमें अयोध्या ‘हिंसाभिरभिवर्जितः’ कहा है (अयो. कां.100वां सर्ग, श्लोक 44)।
अर्थात् अयोध्या हिंसा से पूर्ण मुक्त थी, तब शिकार कैसे किया जा सकता है? जब श्रीराम का राजतिलक होने वाला था, तब महाराज दशरथजी ने श्रीरामजी को उपदेश देते हुये 18 व्यसनों से दूर रहने को कहा था, ये 18 व्यसन भगवान् मनुप्रोक्त कामज व क्रोधज व्यसन हैं, जिनमें शिकार खेलना राजाओं के लिये प्रथम दुव्र्यसन बताया है। तब श्रीरामजी व दशरथजी का शिकार खेलना, हिंसा करना कैसे सिद्ध हो सकता है? यदि कोई यह प्रश्न करे कि जब श्रीरामजी शिकार खेलते ही नहीं थे, तब उन्हें उपदेश देकर निषेध करने की आवश्यकता कैसे पड़ी? इसका उत्तर स्वयं दशरथजी के वचनों से ही मिल जाता है। वे कहते हैं-
‘‘कामतस्वं प्रकृत्यैव निर्णीतो गुणवानिति।
गुणवत्यपि तु स्नेहात् पुत्र वक्ष्यामि ते हितम्।।’’
अर्थात् यद्यपि तुम स्वभाव से ही गुणवान् हो और तुम्हारे विषय में सबका यही निर्णय है, तथापि मैं स्नेहवश सद्गुणसम्पन्न होने पर भी तुम्हें हित की बातें कहता हूँ। इससे स्पष्ट है कि श्रीरामजी में उपर्युक्त व्यसन नहीं होने पर भी पिता होने के नाते उपदेश करना कर्तव्य समझ कर ही ऐसा कहा था।
||जय श्री राम||
अति सुंदर स्वामीजी🙏🙏
जवाब देंहटाएंआपका ज्ञान भांडार बहुत विशाल है|ऐसे ही ज्ञान देते रहे|
जय श्री राम 🙏🙏🌺🌺