बुधवार, 14 जुलाई 2021

क्या हुआ जब भगवान भोलेनाथ ने अपने पांचों त्रिनेत्र एकसाथ खोल दिए?


।।अद्भुत प्रसंग श्रीरामचरितमानस में श्रीराम विवाह से।।

जब राघवेन्द्र सरकार दूल्हा बने तो सभी देवगण सुंदर मंगल का अवसर जानकर, नगाड़े बजा-बजाकर फूल बरसाते हैं। और श्रीराम जी का विवाह देखने के लिए...!

"प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू चले बिलोकन राम बिआहू"

सब देव स्वर्ग लोक से जनकपुरी के लिए चल पड़े,तो जब सब देव चले तो फिर महादेव जी पीछे क्यों...? भोले बाबा पार्वती से बोले! देवी हम भी जाएंगे। पार्वती बोलीं hey naath आप तो रहने ही दो! क्योंकि यदि आपने रामजी के दर्शन की लालसा में अपने सब नेत्र खोल दिए तो तीसरा नेत्र खुलते ही आग बरसनी सुरु हो जाएगी। और रंग में भंग पड़ जाएगा।

भोले बाबा बोले! देवी आप को पता नहीं होगा..! मेरा यह तीसरा नेत्र आग ही नहीं जल भी बरसाता है,जब इसके आगे काम हो तो,आग की ज्वाला,और जब इसके आगे राम हो तो अनुराग का जल (प्रेमाश्रु) बरसाने लगता है। अर्थात....!

"प्रेम भगति जल बिनु रघुराई"
"अमिअंतर मल कबहुं न जाई"

परमात्मा की प्रेमपूर्ण भक्ति रूपी जल के बिना हृदय का मैल कभी नही जा सकता है।

बड़ा सुन्दर और मार्मिक प्रसंग है, कि ये तीसरा नेत्र क्या है...? ऋषियों,मुनियों एवं योगियों कि मान्यता है कि तीसरा नेत्र दोनों भौहों के मध्य होता है। और हमारे तो दो ही आंख है,एक दाईं और दूसरी बाईं संकेत बहुत सुंदर है। जो हमारे अनुकूल है वो हमारे दाहिने है,और जो हमारे प्रतिकूल है,वो हमारे बाएं है।हमारे पास तो दो ही दृष्टि है।
 
एक अनुकूलता की,और दूसरी प्रतिकूलता की। जो हमारे अनुकूल है,उनसे हमारा राग है,और जो हमारे प्रतिकूल है उनसे हमारा द्वेष है। हमारे तो दो ही दृष्टि है,राग की और द्वेष की, हम संसार को राग और द्वेष की ही दृष्टि से देखते है।

और जो ये तीसरी दृष्टि है वो दोनों के मध्य में है,अर्थात जो न तो राग से प्रभावित हो और न ही द्वेष से प्रभावित हो। जो राग और द्वेष दोनों से ही तटस्थ रहे,वो शिव की दृष्टि है। जिससे भगवान को देखाजा सकता है,भगवान को न तो राग की दृष्टि से देखा जा सकता है,और न ही द्वेष की दृष्टि से देखा जा सकता है। भगवान को तो सिर्फ प्रेम और भाव की दृष्टि से ही देखा जा सकता है।

पार्वती जी बोलीं! प्रभु हमें आप की बात समझ में नहीं आरही है,शिवजी ने कहा! देवी तो चलकर ही देखलो न,और भोलेनाथ मां पार्वती के साथ जब रामजी की बरात में पहुंचे तो,राघव जी के दूल्हा स्वरूप को देखने के लिए शिवजी ने अपने तीसरे नेत्र को भी खोल दिया।

"संकरु राम रूप अनुरागे" "नयन पंचदस अति प्रिय लागे"

अब सोचो पंचमुखी शिवजी के पंद्रह नेत्र तो तब होंगे, जब राघव जी के दर्शन के लिए दश नेत्रों के साथ-साथ पांच तीसरा नेत्र भी खुला होगा! लेकिन जब पांचों तीसरे नेत्र खुले तो हुआ क्या...?

"राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि"
"पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि"

नख से शिखा तक श्री रामचन्द्रजी के सुंदर दूल्हा स्वरूप को बार-बार देखते हुए पार्वतीजी सहित श्री शिवजी का शरीर पुलकित हो गया,और अग्नि की ज्वाला की जगह उनके नेत्र से अनुराग का वारि,प्रेम का जल बरसने लगा,आंखें प्रेमाश्रुओं के जल से भर गईं।

शिवजी बोले देवी अब तो खुश हो...! मेरे नेत्रों ने आग नहीं बरसायी,पार्वती जी बोली कि भोलनथ,बात तो आप की सत्य निकली। लेकिन जैसे ही देवी पार्वती की दृष्टि उस घोड़े पर पड़ी जिसपर श्रीरामजी दूल्हा स्वरूप में सवार थे, पार्वती जी बोल पड़ीं,प्रभु आप तो सिर्फ दूल्हे को ही देखना,दूल्हे की सवारी की ओर तो बिल्कुल देखना ही मत,नहीं तो आप का तीसरा नेत्र आग बरसाने लगेगा...!

सवार का कुछ न बिगड़े,और सवारी का ही बिगड़ जाए। रंग में भाग तो तब भी पड़ जाएगा। लेकिन क्यों...! मेरा नेत्र अश्व को देख कर आग क्यों बरसने लगेगा...! क्योंकि जिस घोड़े पर राघव जी सवारी किए हुए हैं,वो तो पूरा कामदेव ही है। पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं....!

"जेहि तुरंग पर रामु बिराजे"
"बाजि बेषु जनु काम बनावा"

जिस घोड़े पर श्री रामजी विराजमान हैं, मानो कामदेव ने ही उस घोड़े का वेष धारण कर लिया हो।

पार्वती जी की बात सुनकर शंकर जी मुस्कुराए,बोले देवी, उस काम,और इस काम में बहुत अन्तर है,वह काम "आम" पर बैठा था,और इस काम पर "श्रीराम" बैठे हैं,वह काम स्वच्छंद था,पर यह काम स्वतंत्र है,लेकिन स्वच्छंद नहीं।

व्यावहारिक जीवन में समाज में काम की स्वतंत्रता रहे तो वंदनीय है,काम तो निंदनीय तब होता है,जब वह स्वच्छंद हो जाता है,जिसकी कोई मर्यादा नहीं रह जाती। वह काम तो आम पे बैठा था,और स्वच्छंद था,लेकिन इसपे तो राम बैठे है,और इसके लगाम लगी हुई है,और इस काम की लगाम श्रीराम के हाथ में है।धन्य है ऐसा काम जिसकी लगाम श्रीराम के हाथ में हो....!

एक अनुरोध सभी श्रोताओं से के जो भी कार्य आप करते है उसे प्रभु श्रीराम के हाथ में दे दीजाए। कामना रहित होकर निष्काम भाव से प्रभु को समर्पित करते हुए,समर्पण भाव से जो कार्य होगा,उससे ही अपना,समाज और देश का कल्याण होगा।

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