शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

श्री गोवर्धन नाथ जी कथा

गोवर्धन द्रौंण पर्वत की श्रृंखला है। ऋषि पुलस्त्य ( जो रावण के पितामह थे ) तीर्थाटन भ्रमण करते करते द्रौंणाचल पहुंचे उन्हें ये द्रौंण की पुत्र श्रृंखला बहुत  रमणीक लगी अत: उन्होंने द्रौंण पर्वत के इस पुत्र को काशी साथ ले जाने की याचना कर स्वीकृति ले ली । किन्तु गोवर्धन पर्वत को द्वापर में अपने और श्री कृष्ण के मिलन संयोग का आभास होने से उन्होंने पुलस्त्य के सामने एक प्रस्ताव रख प्रतिज्ञा करा ली कि आप मुझे अति शीघ्र ले जायेंगे,रास्ते में कहीं रुकेंगे नहीं और न मुझे रखेंगे, यदि बीच में कहीं रख देंगे तो फिर मैं अचल हो जाऊंगा। ऋषि ने वचन दे दिया।

फिर क्या था गोवर्धन को अपना मनोरथ पूर्ण होते दीखा।

जैसे ही वे वर्तमान ब्रज भूमि के निकट पहुंच ने वाले थे कि गोवर्धन ने अपना भार बढ़ा दिया इस कारण ऋषि को लघुशंका का वेग सताने लगा और वो उस समय अपनी प्रतिज्ञा भूल गये, उन्होंने ने गोवर्धन को वहां रखकर लघुशंका निवृत्ति ,शुद्धि उपरान्त गोवर्धन को पुन: उठाने का प्रयास किया। किन्तु गोवर्धन प्रतिज्ञा स्मरण कराके किंचित मात्र भी हिलने को तैयार न हुए, ऋषि ने बहुत मनुहार की,सारे प्रयत्न असफल होने पर ऋषि ने क्रोधित हो प्रति दिन तिल के बराबर घटने का श्राप दे दिया।

श्री कृष्ण के परम भक्त ने उसे सादर स्वीकार कर लिया।

 तदुपरान्त बहुत  समय पश्चात् भगवान राम के द्वारा जब समुद्र पर सेतु निर्माण हो रहा था, बहुत से पर्वतों लाया जा रहा था, तब श्री हनुमानजी ने गोवर्धन के मना करने पर यह कह कर इस पर्वत को उखाड़ लिया कि तुम्हें मैं भगवान के साक्षात् दर्शन कराऊंगा किन्तु तभी उनको संदेश मिला कि सेतु निर्माण का कार्य पूर्ण चुका है अब और पर्वतों की आवश्यकता नहीं,तो उन्होंने गोवर्धन को पुनः वहीं स्थापित कर दिया।

किन्तु गोवर्धन ने उनकी पूंछ पकड़ कर उन्हें रोक लिया( वही श्रीहनुमान जी का स्वरूप आज "पूंछरी लौठा रूप में विद्यमान है) और कहा- आपके वचन का क्या हुआ , मुझे भगवान् के साक्षात्  दर्शन कैसे कराओगे ?

तब हनुमानजी ने भगवान राम से अपने वचन मिथ्या होने की समस्या कही।

प्रभु श्रीराम ने कहा कि  गोवर्धन को मेरा संदेश दे दो कि मैं द्वापर युग में उनकी श्रीकृष्ण रूप में ये कामना अवश्य पूर्ण करूंगा।

ऐसे हैं भगवद्भक्त,कृष्ण स्वरूप श्री गोवर्धन नाथ जी जिन्होंने प्रभु सांनिध्य प्राप्ति हेतु युगों- युगों तक प्रतीक्षा, तपस्या की।

"श्री गोवर्धन नाथ की जय"

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