मंगलवार, 19 सितंबर 2023

गाय की पूजा क्यों करते हैं?


हिंदू धर्म में, "गौ माता" एक अभिव्यक्ति है जिसका उपयोग गाय को माता के रूप में इंगित करने के लिए किया जाता है। गायों को पवित्र माना जाता है और अक्सर उनके साथ बहुत सम्मान और श्रद्धा से व्यवहार किया जाता है। इन्हें पोषक तत्वों के रूप में देखा जाता है जो दूध के साथ-साथ कृषि सहायक के रूप में भी पोषण प्रदान करते हैं। "गौ माता" शब्द संस्कृत के शब्द "गौ" से बना है जिसका अर्थ है गाय और "माता" का अर्थ है माँ।

क्या आपने कभी सोचा है कि सनातन धर्म में गाय इतनी पूजनीय क्यों हैं? यह कोई रहस्य नहीं है कि गायें सनातन मान्यताओं और संस्कृति में एक विशेष स्थान रखती हैं, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों है? यदि आप हिंदू धर्म में गायों के महत्व के बारे में जानने को उत्सुक हैं, तो आप सही जगह पर आए हैं। सनातन धर्मियों के रूप में, हम जानते हैं कि गायें सिर्फ जानवर नहीं हैं, उन्हें पवित्र और मातृत्व , प्रजनन क्षमता और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। 

उनके व्यावहारिक उपयोगों के अलावा, गायों को उनके आध्यात्मिक महत्व के लिए भी पूजनीय माना जाता है, क्योंकि कई हिंदुओं का मानना ​​है कि वे दिव्यता का प्रतीक हैं और देवताओं से संबंध प्रदान करती हैं। दरअसल, हिंदू धर्म में गाय को सात माताओं में से एक माना जाता है। सनातन धर्म में गायों को पवित्र माना जाता है और उन्हें " माँ " का दर्जा दिया जाता है। 


हिंदुओं का मानना ​​है कि गायों में कई देवताओं का निवास होता है और वे उनके जीवन में सौभाग्य लाती हैं। गायों की पूजा की जाती है क्योंकि उन्हें अनुग्रह, निस्वार्थता और प्रचुरता का प्रतीक माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि गायें अपने संपर्क में आने वाली किसी भी चीज़ को शुद्ध करने की शक्ति रखती हैं। गाय का दर्शन मात्र भी शुभ माना जाता है और सौभाग्य लाता है।

कामधेनु "हिंदू धर्म में एक दिव्य, इच्छा पूरी करने वाली गाय है। उसे सभी गायों की माता माना जाता है और अक्सर उसे मादा सिर और पंखों वाली एक सफेद गाय के रूप में चित्रित किया जाता है। कामधेनु का निर्माण भगवान ब्रह्मा ने किया था। कामधेनु को भी माना जाता है यह चारों वेदों का स्रोत है जो हिंदू धर्म का सबसे पवित्र ग्रंथ माना जाता है।

भगवान कृष्ण, हिंदू धर्म में सबसे अधिक पूजे जाने वाले देवताओं में से एक, बचपन में एक चरवाहे थे। वह अपने दोस्तों और चराती गायों के साथ वाद्ययंत्र बजाता था। सनातन धर्म में चरवाहा एक लोकप्रिय विषय है और भगवान शिव का भी गायों से गहरा संबंध माना जाता है। महाकाव्य महाभारत में गायों को धन और समृद्धि का प्रतीक माना गया है। भगवत गीता भी कहती है कि भगवान कृष्ण जानवरों में गाय हैं।



मंगलवार, 1 फ़रवरी 2022

श्रीमद्भागवत पुराण से ली गयी, आत्मदेव ब्राह्मण,गौकर्ण और धुंधकारी की कथा।

तुंगभद्रा तटे पूर्वम् भूत्पत्तनमुत्तमम्।
यत्र वर्णा: स्वधर्मेण सत्य सत्कर्मतत्परा:॥

प्राचीन समय की बात है। दक्षिण भारत की तुंगभद्रा नदी के तट पर एक नगर में आत्मदेव नामक एक व्यक्ति रहता था, जो सभी वेदों में पारंगत था। उसकी पत्नी का नाम धुन्धुली था। धुन्धुली बहुत ही सुन्दर लेकिन स्वभाव से क्रूर और झगडालू थी। घर में सब प्रकार का सुख था लेकिन वह व्यक्ति अपनी पत्नी से तो दुखी था ही साथ ही साथ उसे कोई संतान का सुख भी नहीं था। वह चिंता में रहता था कि यदि उम्र ढल गई तो फिर संतान का मुख देखने को नहीं
मिलेगा। यह सब सोचकर उसने बड़े दुखी मन से अपने प्राण त्यागने के लिए वह वन चला गया। वन में एक तालाब में वह कूदने ही वाला था कि तभी एक
संन्यासी ने उसे देखकर उससे पूछा, कहो वीप्रवण तुम्हे ऐसी कौन-सी भारी चिंता है जिसके कारण तुम प्राण त्याग रहे हो?

आत्मदेव ने कहा, ऋषिवर मैं संतान के लिए इतना दुखी हो गया हूं कि मुझे अब अपना जीवन निष्फल लगता है। संतानहीन जीवन को धिक्कार है और मैंने जिस गाय को पाल रखा है वह भी बांझ है। यह तो ठीक है मैं जो पेड़ लगता हूं उस पर भी फल-फूल नहीं लगते हैं। मै घर में जो फल लाता हूं वह भी बहुत जल्दी सड़ जाता है। इन सब बातों से में दुखी हो चुका है। ऐसा कहकर वह व्यक्ति रोने लगता है। वह संत उसकी बात सुनकर उसके ललाट की रेखाओं को देखता है। रेखाओं को देखकर वह कहता है कि वीप्रवण कर्म की गति बड़ी प्रबल है, वासना को छोड़ दो, सुनो। मैंने तुम्हारा भाग्य देख लिया है, इस जन्म में तो क्या अगले सात जन्मों तक तुम्हारे कोई संतान किसी भी प्रकार से नहीं हो सकती। तब ब्राह्मण कहता है कि फिर मुझे प्राण त्यागने दीजिए या आप किसी भी यत्न से मुझे पुत्र प्राप्त का मार्ग बताएं।..,जब वह संत देखता है कि यह व्यक्ति किसी भी प्रकार से समझाने पर भी प्राण त्यागने को अमादा है तो वह अपन झोली से फल निकालकर कहता है कि अच्छा ठीक है। तुम यह फल लो और इसे अपनी पत्नी को खिला देना, इससे उसके एक पुत्र होगा।

आत्मदेव वह फल लाकर अपनी पत्नी को दे देता है लेकिन उसकी पत्नी वह मन ही मन सोचती है कि यदि मैंने ये फल खा लिया और गर्भ रह गया तो मुझसे खाया नहीं आएगा और मैं मर भी सकती हूं। यह सोचकर वह तय करती है कि मैं ये फल नहीं खाऊंगी इसीलिए वह आत्मदेव से कई तरह के तर्क और कुतर्क करती है। आत्मदेव के कहने पर वह फल तो रख लेती है लेकिन खाती नहीं है।
एक दिन उसकी बहन उसके घर आती है जिसे वह सारा किस्सा सुनाती है। बहन उससे कहती है कि- मेरे पेट में बच्चा है, प्रसव होने पर वह बालक मैं तुम्हे दे दूंगी, तब तक तुम गर्भावती के समान घर में रहो। मैं कह दूंगी, मेरा बच्चा मर गया और तू ये फल गाय को खिला दे। आत्मदेव की पत्नी अपनी बहन की बात मानकर ऐसा ही करती है। उस फल को वह गाय को खिला देती है। समय व्यतीत होने पर उसकी बहन ने बच्चा लाकर धुन्धुली को दे दिया। पुत्र हुआ है यह सुनकर
आत्मदेव को बड़ा आनंद हुआ। धुन्धुली ने अपने बच्चे का नाम धुंधकारी रखा। इसके तीन माह व्यतीत होने के बाद एक दिन आत्मदेव सुबह गाय को चारा
डालने गा तो उसने देखा कि गाय के पास एक बच्चा है जो कि मनुष्याकार है, लेकिन बस उसके कान ही गाय के समान थे। उसे देखकर वह आश्चर्य में पड़ जाता है। हालांकि उसे बड़ा आनंद भी होता है। वह उस बच्चे को
उठाकर घर में ले जाता है। उसका नाम वह गोकर्ण रखता है। अब उसके दो बाल हो जाते हैं। एक धुंधकारी और दूसरा गोकर्ण। गोकर्ण बड़ा होकर विद्वान पंडित और ज्ञानी निकलता है जबकि धुंधकारी दुष्ट, नशेड़ी और क्रोधी, चोर, व्याभिचारी, अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाला, माता पिता को सताने वाला निकलता है। वह माता पिता की सारी संपत्ति नष्ट कर देता है।

एक दिन वह पिता को मार मार कर घर से बहार निकाल देता है। पिता रोने लगता है और कहता है कि मेरी पत्नी का बांझ रहना ही अच्छा था। तभी वहां गोकर्ण आ जाता है। वह पिताजी को वैराग्य का उपदेश देता है और कहता है कि आप सभी छोड़कर प्रभु की शरण में वन चले जाएं और भागवत भजन
करें। भगवत भजन ही सबसे बड़ा धर्म है। गो से उत्पन्न पुत्र गोकर्ण की बात मानकर आत्मदेव वन चले जाते हैं। बाद में उसकी पत्नी धुन्धली को धुंधकारी सताने लगता है तो वह कुएं में कुंदकर आत्महत्या कर लेती है। तब धुंधकारी पांच वेश्याओं के साथ रहने लगता है। वेश्याएं उसे अपने तरीके से संचालित करती थी। धुंधकारी उन वेश्याओं के लिए ही धन जुटाने लगता है। वह उनके लिए डाका डालता और चोरी करता है। बाद में वे वेश्याएं सोचने लगती है कि यदि एक दिन यह पकड़ा गया तो राजा इसके साथ हमें भी दंड देगा। यह सोचकर वह वेश्याएं सोते हुए धुंधकारी को रस्सियों से उसका गला दबाने का प्रयास करती है। जब वह गला दबाने से भी नहीं मरता है तो वे सभी मिलकर उसे दहकते अंगारों में डाल देती है। वहां वह तड़फतड़फ कर मर जाता है। बाद में उसे गड्डा खोदकर गाड़ दिया जाता है। मरने के बाद धुंधकारी भयंकर दुख देने, झेलने और अपने कुकर्मो के कारण एक प्रेत बन जाता है। प्रेत बनने के बाद भूख और प्यास से वह व्याकुल हो जाता है। रह रहकर वह चिल्लाता भी रहता है
क्योंकि उसे अंगारों से जलाया गया था इसीलिए उसकी अनुभूति उसे अभी भी सताती रहती है। उसे लगता है कि अभी भी मेरा शरीर जल रहा है।

एक दिन उसका भाई गोकर्ण उसके गांव में कथा करते हुए आते हैं। गोकर्ण सबसे नजर बचाते हुए अपने पुश्तेनी मकान में सोने चले जाते हैं। अपने ही घर में अपने भाई को सोया हुआ देखकर धुंधकारी खुश हो जाता है और आवाज लगाता है। गोकर्ण यह आवाज सुनकर पूछता है कि तुम कौन हो? धुंधकारी कहता है, मैं तुम्हारा भाई हूं, मेरे कुकर्मो की गिनती नहीं की जा सकती, इसी से में प्रेत-योनी में पड़ा ये दुर्दशा भोग रहा हूं, भाई। तुम दया करके मुझे इस योनी से छुड़ाओ। गोकर्ण कहता है कि मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है मैंने तुम्हारे लिए विधिपूर्वक गयाजी में श्राद्ध किया फिर भी तुम प्रेतयोनी से मुक्त कैसे नहीं हुए, मैं कुछ और उपाय करता हूं। कई उपाय करने के बाद भी जब कुछ नहीं होता है तो अंत में वह सूर्यदेव से पूछते हैं तो सूर्यदेव कहते हैं कि केवल श्रीमद्भागवत कथा सुनने से मुक्ति हो सकती है। इसलिए तुम सप्ताह पारायण करो। तब गोकर्णने व्यास गद्दी पर बैठकर कथा कहने लगे देश, गांव से बहुत लोग कथा सुनने आने लगे इतनी भीड़ हो गई कि सब आश्चर्य करने लगे तब वह प्रेत भी वहां आ पहुंचा वह इधर-उधर स्थान ढूंढने लगा इतने में उसकी दृष्टि एक सीधे रखे हुए सात गांठ के बांस पर पड़ी वह वायु रूप से उसमें जाकर बैठ गया। जब शाम को कथा को विश्राम दिया गया, तो एक बड़ी विचित्र बात हुई। सबके देखते-देखते उस बांस
की एक गांठ तड़-तड़ करती फट गई इसी प्रकार सात दिनो में सातों गांठे फट गई और बारह स्कंद सुनने से पवित्र होकर धुंधकारी एक दिव्य रूप धारण करके सामने खड़ा हो गया। उसने भाई को प्रणाम किया तभी बैकुण्ठवासी पार्षदों के सहित एक विमान उतरा। सबके देखते ही धुंधकारी विमान पर चढ़ गए। उन पार्षदों को देखकर उनसे गोकर्ण ने कहा, भगवान के प्रिय पार्षदों यहां हमारे अनेकों शुद्ध हृदय श्रोतागण है उन सबके लिए एक साथ बहुत से विमान क्यों नहीं लाए? यहां सभी ने समान रूप से कथा सुनी है फिर फल में इस प्रकार का भेद क्यों? भगवान के पार्षदों ने कहा, इस फल भेद का कारण इनमें श्रवण का भेद है श्रवण सबने समानरूप से ही किया किन्तु इसके जैसा मनन नहीं किया। इस प्रेत ने सात दिन तक सुने हुए विषय का स्थिरचित्त से खूब मनन भी करता रहा। यह कहकर वे सब पार्षद बैकुंठ को चले गए। मनन भी करता रहा। यह कहकर वे सब पार्षद बैकुंठ को चले गए।

श्रावण माह में गोकर्ण ने फिर से उसी प्रकार सप्ताह क्रम से कथा कही वहां भक्तों से भरे हुए विमानों के साथ भगवान प्रकट हो गए उस गांव में कुत्ते और
चण्डाल पर्यंन्त जितने भी जीव थे सभी दिव्य देह धारण करके विमान पर चढ़ गए भगवान उन सभी को योगि दुर्लभ गोलोक धाम में ले गए। अपने माता-पिता को कष्ट देने वाला, शराब पीने वाला, वेश्यागामी आदि पुरुष प्रेतयोनी प्राप्त कर
अनंतकाल तक भटकते रहते हैं। अब न हो गोकर्ण की तरह कथा सुनाने वाले हैं और न सुनने वाले। धुंधकारी को उसके पापों की सजा तो मिली ही साथ ही उसने प्रेतयोनी में रहकर भी सजा भुगती। बाद में जब उसे पछतावा हुआ तो भागवत कथा सुनकर मन निर्मल हो गया। निर्मल मन होने से उसके सारे संताप
जाते रहे।

<script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-6873072736104983"
     crossorigin="anonymous"></script>

शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

मैं कौन हूं?

अनंत जन्मों से मैं कौन हूँ' उसकी पहचान ही अटकी हुई है, इसलिए तो इस भटकन का अंत नहीं होता! उसकी पहचान कैसे हो? जिसे खुद की पहचान हो गई हो, वही व्यक्ति अन्य व्यक्तियों को आसानी से पहचान करा सकता है। 

शान्तचित्त से नेत्र मूँदकर किसी सरल आसन पर बैठिए। गहरी श्वास खींचिये। थोड़ी देर रोककर बाहर निकाल दीजिए। सारे दोष, विकार, इच्छाएँ श्वास के साथ बाहर चले गये। ध्यान कीजिए कि सम्पूर्ण आकाश में केवल एक मैं ही हूँ। थोड़ी देर पश्चात् अपनी आत्मा में से एक तेजपुञ्ज निकलकर अपने चारों ओर घेरे की तरह फैलता हुआ अनुभव कीजिए। घेरे के चारों ओर प्रकाश की बहुत ऊँची, असीम दीवारें खड़ी हुई हैं। मैं इस दुर्ग के अन्दर सुरक्षित बैठा हुआ हूँ। सारे दोष, बुराइयाँ घेरे के बाहर खड़ी हैं। इनकी पहुँच हम तक किसी भी प्रकार नहीं हो सकती। स्फटिकमणि के जगमगाते आसन पर बैठा हुआ अनुभव कीजिए।

थोड़ी देर पश्चात् ध्यान करें। प्राण शक्ति का निरन्तर प्रवाह मस्तिष्क मध्य में से होता हुआ पूरे शरीर में फैल रहा है। हर एक अंग पर ध्यान जमाइएँ और उस अंग को स्वस्थ, सबल, सतेज अनुभव कीजिए। यह भावना हाथ, पाँव, नाक, कान, आँख, छाती आदि समस्त अंगों में करने के बाद सम्पूर्ण शरीर को एक साथ देखिए। वह सब प्रकार से स्वस्थ, सुन्दर, सशक्त, सतेज है। उसके अन्दर पर्याप्त शक्ति है। पूर्ण स्वस्थता है। रक्त संचार ठीक से हो रहा है। स्फूर्ति छलक रही है। तेज जगमगा रहा है।

अब मन का ध्यान कीजिए। मस्तिष्क स्थान में तीव्र बुद्धि, स्मरण शक्ति, ज्ञान, विवेक भरा है। हृदय स्थान में सत्य, प्रेम, न्याय, दया, साहस, त्याग, उत्साह, कर्मनिष्ठा आदि सद्गुणों की बहुलता देखिए। मन ही मन निम्न मन्त्रों का जाप करते जाइये।

1. मैं स्वस्थता और सबलता का केन्द्र हूँ।
2. मैं शक्ति और तेज का पुञ्ज हूँ।
3. मैं अपने भाग्य का स्वामी हूँ।
4. मैं पवित्रता और श्रेष्ठता से परिपूर्ण हूँ।
5. मैं सुसम्पन्न शरीर, मस्तिष्क और अन्तःकरण धारण किये हुए हूँ।

सोमवार, 24 जनवरी 2022

मनुष्य पोतड़ों में लिपटा एक परमात्मा है।

मनुष्य पोतड़ों में लिपटा एक परमात्मा है।

समय एक पोतड़ा है, स्थान एक पोतड़ा है, देह एक पोतड़ा है और इसी प्रकार हैं इन्द्रियां तथा उनके द्वारा अनुभव-गम्य वस्तुएं भी । माँ भली प्रकार जानती है की पोतड़े शिशु नहीं हैं । परन्तु बच्चा यह नहीं जानता | अभी मनुष्य का अपने पोतड़ों में बहुत ध्यान रहता है जो हर दिन के साथ, हर युग के साथ बदलते रहते हैं । इसलिए उसकी चेतना में निरंतर परिवर्तन होता रहता है; इसीलिए उसका शब्द, जो उसकी चेतना की अभिव्यक्ति है, कभी भी अर्थ में स्पष्ट और निश्चित नहीं होता; और इसीलिए उसके विवेक पर धुंध छाई रहती है; और इसीलिए उसका जीवन असंतुलित है।

यह तिगुनी उलझन है । इसीलिए मनुष्य सहायता के लिए प्रार्थना करता है । उसका आर्तनाद अनादि काल से गूंज रहा है । वायु उसके मिलाप से बोझिल है । समुद्र उसके आंसुओं के नमक से खारा है । धरती पर उसकी कब्रों से गहरी झुर्रियां पड़ गईं हैं | आकाश उसकी प्रार्थनाओं से बहरा हो गया है । और यह सब इसलिए कि अभी तक वह ;मैं' का अर्थ नहीं समझता जो उसके लिए है पोतड़े और उसमे लिपटा हुआ शिशु भी।
'मैं कहते हुए मनुष्य शब्द को दो भागों में चीर देता है; एक, उसके पोतड़े; दूसरा प्रभु का अमर अस्तित्व । क्या मनुष्य वास्तव में अविभाज्य को विभाजित कर देता है ? प्रभु न करे ऐसा हो । अविभाज्य को कोई शक्ति विभाजित नहीं कर सकती-इश्वर की शक्ति भी नहीं । मनुष्य अपरिपक्व है इसलिए विभाजन की कल्पना करता है | और मनुष्य, एक शिशु, उस अनंत अस्तित्व को अपने अस्तित्व का बैरी मानकर लड़ाई के लिए कमर कस लेता है और युद्ध की घोषणा कर देता है। इस युद्ध में, जो बराबरी का नहीं मनुष्य अपने मांस के चीथड़े उदा देता है, अपने रक्त की नदियाँ वह देता है; जबकि परमात्मा, जो माता भी है और पिता भी, स्नेह-पूर्वक देखता रहता है, क्योंकि वह भली-भाँती जानता है कि मनुष्य अपने उन मोटे पर्दो को ही फाड़ रहा है और अपने उस कड़वे द्वेष को ही बहा रहा है जो उस एक के साथ उसकी एकता के प्रति उसे अँधा बनाय हुए है ।यही मनुष्य की नियति है- लड़ना और रक्त बहाना और मूर्छित हो जाना,और अंत में जागना और 'मैं' के अंदर की दरार को अपने मांस से भरना और अपने रक्त से उसे मजबूती से बंद कर देना । इसलिए साथियों.... तुम्हे सावधान कर दिया गया है- और बड़ी बुद्धिमानी के साथ सावधान कर दिया गया है कि मैं शब्द का प्रयोग कम से कम करो क्युकी जब तक आप मै शब्द से बंधे हुए हो तब तक तुम अपने झुटे अभिमान कोंचंटे रहोगे, बटोरते रहोगे केवल हर जीवन के बाद मृत्यु को (कालचक्र), पीड़ाओं को और वदेनाओ को।

शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

क्रिया योग कैसे करते है?

1 *एक क्रिया व्यवसायी को दिन में कम से कम 2 बार यानी सुबह और शाम अभ्यास करना चाहिए, शुरुआत में 2 घंटे और कुछ के बाद 3 घंटे तक बढ़ाना चाहिए।

2*क्रिया को पूरा करने के लिए जल्दबाजी के बिना बहुत आराम से अभ्यास किया जाना चाहिए

3*क्रिया एक क्रिया चिकित्सक को 4 से 6 घंटे पहले कुछ भी नहीं खाना चाहिए
क्रिया का अभ्यास करना।

4*क्रिया अभ्यास के दौरान एक शुद्ध ऊनी कम्बल पर बैठना चाहिए
उस पर रेशम।

5*शरीर के किसी भी हिस्से को फर्श को नहीं छूना चाहिए।

6*बैठने की मुद्रा एकदम सही होनी चाहिए, बिना किसी भी भाग के
शरीर।

7*मानसिक आंखों को भौंहों या अग्न्या के केंद्र में तय किया जाना चाहिए
चक्र शारीरिक आंखों को तनाव रहित करता है।

8*साँस लेने के दौरान 'ओम' का 6 बार और साँस छोड़ने के दौरान 6 बार जप करें।

9*एक साथ मन को अग्नि चक्र में स्थिर करना चाहिए।

10*क्रिया अभ्यास के लिए सिद्धासन सर्वश्रेष्ठ आसन है।

11*केवल सात्विक भोजन ही लेना चाहिए। भोजन के लिए बहुत महत्वपूर्ण कारक है।

क्रिया व्यवसायी के लिए अच्छा नहीं है: ज्यादा खाना, घूमना, सोना, बहुत गर्म या बहुत ठंडा, बहुत मसालेदार खाना आदि।

*छह या साढ़े छह घंटे की नींद पर्याप्त है।
*बहुत ज्यादा टी। वी। देखना, गपशप करना, विभिन्न पुस्तकें पढ़ना, गपशप करना मना किया हुआ।
*महिला साथी स्वीकार्य नहीं हैं।
*थोड़ी उन्नति के बाद, ब्रह्मचर्य बनाए रखना पड़ता है।
*हमेशा अंधेरे कमरे के अंदर क्रिया का अभ्यास करें।
*कभी भी किसी भी दृश्य, शक्तियों या किसी अन्य अनुभव के बारे में बात न करें।
मन मंदिर चैनल सब्सक्राइब करे:–https://youtube.com/c/MannMandir

बुधवार, 28 जुलाई 2021

नारद मोह की कथा

नारद जी ने एक आश्रम में जन्म लिया था। उनकी माँ उस आश्रम की सेविका थीं। नारद जी का बचपन ऋषि कुमारों के साथ खेल-कूदकर बीता। ऋषि-महर्षियों के संग ने उनके मन में छुपी हुई आध्यात्मिक जिज्ञासा को जगा दिया और वे भी योग के रास्ते पर चल पड़े। अपनी तपस्या के बल पर उन्होंने सिद्धियाँ प्राप्त की और सदा के लिए अमर हो गए। नारद जी को यह अभिमान हो गया कि उनसे बढ़कर इस पृथ्वी पर और कोई दूसरा विष्णु भगवान का भक्त नहीं है।

उनका व्यवहार भी इस भावना से प्रेरित होकर कुछ बदलने लगा। वे भगवान के गुणों का गान करने के साथ-साथ अपने सेवा कार्यों का भी वर्णन करने लगे। भगवान से कोई बात छुपी थोड़े ही है। उन्हें तुरन्त इसका पता चल गया। भला वे अपने भक्त का पतन कैसे देख सकते थे। इसलिए उन्होंने नारदजी को इस दुष्प्रवृत्ति से बचाने का निर्णय किया। एक दिन नारद जी और भगवान विष्णु साथ-साथ वन में जा रहे थे कि अचानक विष्णु जी एक वृक्ष के नीचे थककर बैठ गए और बोले, 'भई नारद जी हम तो थक गए,प्यास भी लगी है। कहीं से पानी मिल जाए तो लाओ। हमसे तो प्यास के मारे चला ही नहीं जा रहा है। हमारा तो गला सूख रहा है। नारद जी तुरन्त सावधान हो गए, उनके होते हुए भला भगवान प्यासे रहें। वे बोले, भगवान अभी लाया, आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करें। नारद जी एक ओर दौड़ लिए।

उनके जाते ही भगवान मुस्कराए और अपनी माया को नारद जी को सत्य के मार्ग पर लाने का आदेश दिया। माया शुरू हो गई। नारद जी थोड़ी दूर ही गए होगें कि एक गाँव दिखाई पड़ा, जिसके बाहर कुँए पर कुछ युवा स्त्रियाँ पानी भर रही थीं। कुँए के पास जब वे पहुँचे तो एक कन्या को देखकर अपनी सुध-बुध खो
बैठे, बस उसे ही निहारने लगे। यह भूल गए कि वे भगवान के लिए पानी लेने आए थे। कन्या भी समझ गई। वह जल्दी-जल्दी जल से घड़ा भरकर अपनी सहेलियों को पीछे छोड़कर घर की ओर लपकी।

नारद जी भी उसके पीछे हो लिए। कन्या तो घर के अन्दर चली गई लेकिन नारद जी ने द्वार पर खड़े होकर नारायण, नारायण का अलख जगाया। गृहस्वामी नारायण का नाम सुनकर बाहर आया। उसने नारद जी को तुरन्त पहचान लिया। अत्यन्त विनम्रता और आदर के साथा वह उन्हें घर के अन्दर ले गया और उनके हाथ-पैर धुलाकर स्वच्छ आसन पर बैठाया तथा उनकी सेवा-सत्कार में कोई कमी न छोड़ी। तब शान्ति के साथ उनके आगमन से अपने को धन्य बताते हुए अपने योग्य सेवा के लिए आग्रह किया। नारदजी बोले, आपके घर में जो आपकी कन्या जल का घड़ा लेकर अभी-अभी आई है, मैं उससे विवाह करना चाहता हूँ। गृहस्वामी एकदम चकित रह गया लेकिन उसे प्रसन्नता भी हुई कि मेरी कन्या एक ऐसे महान् योगी तथा सन्त के पास जाएगी। 

उसने स्वीकृति प्रदान कर दी और नारद जी को अपने घर में ही रख लिया। दो-चार दिन पश्चात् शुभ मुहूर्त ने अपनी कन्या का विवाह नारद जी के साथ कर दिया तथा उन्हें ग्राम में ही उतनी धरती का टुकड़ा दे दिया कि खेती करके वे आराम से अपना पेट भर सकें। अब नारद जी की वीणा एक खूटी पर टंगी रहती जिसकी ओर उनका ध्यान बहुत कम जाता। अपनी पत्नी के आगे नारायण को वे भूल गए। दिन भर खेती में लगे रहते। कभी हल चलाते, कभी पानी देते, कभी बीज बोते, कभी निराई-गुड़ाई करते। जैसे-जैसे पौधे बढ़ते उनकी प्रसन्नता का पारा वार न रहता। फ़सलें हर वर्ष पकतीं, कटतीं, अनाज से उनके कोठोर भर जाते।

नारद जी की गृहस्थी भी बढ़ती गई। तीन-चार लड़के-लड़कियाँ भी हो गए। अब नारद जी को एक क्षण भी फुरसत न थी। वे हर समय उनके पालन-पोषण तथा पढ़ाई-लिखाई में लगे रहते अथवा खेती में काम करते। अचानक एक बार वर्षा के दिनों में तेज़ बारिश हुई। कई दिनों तक बन्द होने का नाम ही नहीं लिया। बादलों की गरज और बिजली की कड़क ने सबके हृदय में भय उत्पन्न कर दिया।मूसलाधार वर्षा ने ग्राम के पास बहने वाली नदी में बाढ़ की स्थिति पैदा कर दी। किनारे तोड़कर नदी उफन पड़ी। चारों ओर पानी ही पानी कच्चे-पक्के सभी मकान ढहने लगे। घर का सामान बह गया। पशु भी डूब गए। अनेक व्यक्ति मर गए। गाँव में त्राहि-त्राहि मच गई।

नारद जी अब क्या करें। उन्होंने भी घर में जो कीमती थोड़ा-बहुत सामान बचा था उसकी गठड़ी-मुठरी बांधी और अपनी पत्नी तथा बच्चों को लेकर पानी में से होते हुए जान बचाने के लिए घर से बाहर निकले। बगल में गठरी, एक हाथ से एक बच्चे का पकड़े, दूसरे से अपनी स्त्री को संभाले तथा पत्नी भी एक बच्चे को गोद में लिए, एक का हाथ पकड़े धीरे-धीरे आगे बढ़े। पानी का बहाव अत्यन्त तेज़ था तथा यह भी पता नहीं चलता था कि कहाँ गड्डा है और कहाँ टीला। अचानक नारद जी ने ठोकर खाई और गठरी बगल से निकलकर बह गई। नारद जी गठरी कैसे पकड़ें, दोनों हाथ तो घिरे थे। सोचा जैसा उसकी इच्छा फिर कमा लेंगे। कुछ दूर जाने पर पत्नी एक गड्ढे में गिर पड़ी और गोद का बच्चा बह गया। पत्नी बहुत रोई, लेकिन क्या हो सकता था, धीरे-धीरे और दो बच्चे भी पानी में बह गए, बहुत कोशिश की उन्हें बचाने की, लेकिन कुछ न हो सका। दोनों पति-पत्नी बड़े दुखी, रोते, कलपते, एक-दूसरे को सात्वना देते, आगे कोई ऊंची जगह ढूंढते बढ़ते रहे। एक जगह आगे चलकर दोनों एक गड्डे समा गए। नारद जी तो किसी प्रकार के गड्ढे में से निकल आए, लेकिन उनकी पत्नी का पता नहीं चला। बहुत देर तक नारदजी उसे इधर से उधर दूर-दूर तक ढूँढते रहे लेकिन व्यर्थ, रोते-रोते उनका बुरा हाल था, हृदय पत्नी और बच्चों को याद कर करके फटा जा रहा था। उनकी तो सारी गृहस्थी उजड़ गई थी। बेचारे क्या करें, किसे कोसें अपने भाग्य को या भगवान को।

भगवान का ध्यान आते ही नारद जी के मस्तिष्क में प्रकाश फैल गया और पुरानी सभी बातें याद आ गई। वे किसलिए आए थे और कहाँ फंस गए। ओ हो। भगवान विष्णु तो उनकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। वे तो उनके लिए जल लेने आए थे और यहाँ गृहस्थी बसाकर बैठ गए। वर्षों बीत गए, गृहस्थी को बसाने में और फिर सब नष्ट हो गया। क्या भगवान अब भी मेरी प्रतीक्षा में उसी वृक्ष के नीचे
बैठे होंगे। 

यह सोचते ही बाढ़ नदारद हो गई। गाँव भी अतंर्धान हो गया। वे तो घने वन में खड़े थे। नारद जी पछताते और शरमाते हुए दौड़े, देखा कुछ ही दूर पर उसी वृक्ष के नीचे भगवान लेटे हैं। नारद जी को देखते ही वे उठ बैठे और बोले, अरे भाई नारद, कहाँ चले गए थे, बड़ी देर लगा दी। पानी लाए या नहीं। नारद जी भगवान के चरण पकड़कर बैठ गए और लगे अश्रु बहाने। उनके मुँह से एक बोल भी न फटा। भगवान मुस्कराए और बोले, तुम अभी तो गए थे। कुछ अधिक देर थोड़े ही हुई है। लेकिन नारद जी को लगता है कि वर्षों बीत गए। अब उनकी समझ में
आया कि सब भगवान की माया थी, जो उनके अभिमान को चूर-चूर करने के लिए पैदा हुई थी। उन्हें बड़ा घमण्ड था कि उनसे बढ़कर त्रिलोक में दूसरा कोई भक्त नहीं है। जरा सी देर में ढेर हो गया। वे पुनः सरलता और विनय के साथ भगवान के गुण गाने लगे।

इस कथा से हमें यह शिक्षा मिलती है कि यदि हमारे पास कुछ है, हमने अथक परिश्रम, लगन तथा निष्ठा से कुछ प्राप्त कर लिया है चाहे वह अपार धन हो, शारीरिक शक्ति हो, भरा-पूरा परिवार हो या फिर कोई ऊंची योग्यता, पद या यश हो तो उस पर घमण्ड क्यों करें। क्या हमसे ऊपर और लोग नहीं हैं क्या हम ही सर्वोपरि हैं। अनेक हमसे पहले हो चुके हैं और आगे भी होगें फिर घमण्ड कैसा। अपनी इस विशेषता से अपना और दूसरों का लाभ होने दें तभी उसका कुछ महत्त्व है अन्यथा वह तो कोयले की बोरी के समान है जो आपके स्टोर में व्यर्थ में ही बिना उपयोग में आए रखी है। इकट्ठा करने में नहीं बांटने में सुख है, आनन्द है।
||राधे राधे||

मंगलवार, 27 जुलाई 2021

श्री रामचरितमानस के सुंदरकांड का एक अनूठा प्रसंग


हनुमान जी की भूख इतनी प्रबल है कि जब वे अशोक वाटिका में श्री सीता जी के पास गए तब उन्होंने यह नही कहा कि मुझे भूख लगी है , अपितु कहा कि-

सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।

अति भूख भी नहीं अपितु अतिसय भूख शब्द का प्रयोग किया । माँ ने पूछा - यह भूख के साथ अतिशय का क्या अर्थ? तो हनुमान जी ने कहा माँ! सत्य तो यह है कि मैं जन्मजात भूखा हूँ। इस संदर्भ में बडी प्रसिद्ध कथा है, जब हनुमान जी का जन्म हुआ तो लाल लाल सूर्य दिखाई पडा और हनुमान जी ने उसको फल समझकर खा लिया। प्रश्न यह है कि क्या सचमुच हनुमानजी इतने ना समझ थे कि उन्होंने सूर्य को फल समझ लिया ? और जिस पर्वत पर हनुमान जी थे क्या उसके आसपास फलों के वृक्ष नहीं थे ?

यद्यपि पर्वत पर तो अनेकानेक फल युक्त वृक्ष थे और यदि उनका फल तोड़ना चाहते तो यह बात ठीक होती । पर इसके स्थान प्रेस सूर्य रूपी फल को खाने के लिए उन्हें कितनी लम्बी छलाँग क्यों लगाना पड़ी ? यदि विचार करके देखें तो हमें स्पष्ट प्रतीत होगा कि जिसने एक छलाँग लगाकर सूर्य को मुँह में धारण कर लिया हो वे हनुमान जी कितने विलक्षण हैं और उनकी भूख कोई साधारण नहीं
है।

इतना ही नहीं फल खाने पर इंद्र ने वज्र से उन पर प्रहार भी कर दिया, तथा हनुमान जी को मूर्छित होना पडा। पर जब बाद में पवन देवता के द्वारा प्राण - वायु की गति रुकने लगी तो फिर सारे इस पर थोड़ा विचार कर लिया जाय।

वस्तुत: श्री हनुमानजी ने किसी भ्रम के कारण सूर्य को फल नहीं समझा था।' फल' के बारे में हम पढ़ते ही हैं अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष से चार फल माने जाते हैं । हनुमानजी यदि चाहते तो उन्हें अर्थ का फल उन्हें सरलता से प्राप्त हो जाता। काम तथा धर्म का फल भी वे प्राप्त कर लेते । परन्तु पास वाले फलों की ओर हनुमान जी मे हाथ नहीं बढ़ाया इसका अर्थ है कि उन्हे ज्ञान की भूख है, प्रकाश
की भूख है। संसार की वस्तुओं की भूख उनके जीवन में नहीं है, वे तो केवल चरम फल के लिए छलाँग लगाते हैं।

श्री हनुमानजी सचमुच छलाँग लगाना जानते हैं। उनकी प्रत्येक छलाँग अनोखी है। जब उनकी पहली छलाँग तो सूर्य तक पहुंच गए। दूसरी छलाँग लंका की दिशा में लगाई तो श्री सीताजी तक पहुंच गये। तीसरी छलाँग में लक्ष्मण जी के लिए दवा लेने द्रोणाचल पर्वत पर पहुंच गए और चौथी छलाँग लगी तो लंका से सीधे अयोध्या पहुंच गये।

हमारे लिए तो सीढी से चढ़ना ही उपादेय है। व्यक्ति यदि यह सोचे कि मुझे अर्थ, धर्म तथा काम का फल नहीं चाहिए , मुझे तो केवल मोक्ष चाहिये यह उचित नहीं हैं। साधारण व्यक्ति श्री हनुमान जी का अनुसरण करके छलाँग तो लगा दे, पर अगर छलाँग सही न लगी तो वह नीचे भी गिर जाएगा। इसलिये हनुमान जी की भूख माने, सुमति- छुधा अर्थात् ज्ञान तथा प्रकाश की भूख।

हनुमान जी ने सूर्य को मुख में धारण कर लिया इसका भी अर्थ दूसरा था।हमारे पुराणों में कथा आती है कि ठीक उसी समय सूर्य ग्रहण लगने वाला था। समय पाकर ग्रहण लगता है और सूर्य का प्रकाश छिप जाता है । इसका अर्थ है कि सूर्य के साथ भी राह की समस्या है।

यह राह मात्सर्य तथा ईर्ष्या वृत्ति का परिचायक है। वर्णन आता है कि राहु का रंग है काला और सूर्य का उज्वल। राहु यह चेष्टा करता है कि भले ही हम ज्ञान (सूर्य) को सदा के लिए न मिटा सकें पर थोड़े समय के लिए इसे ग्रस कर अंधेरा तो अवश्य फैला सकते हैं। हनुमान जी के जन्म के समय जब राहु सूर्य की ओर बढ रहा था उसी समय हनुमान जी छलाँग लगाकर पहुंचे और उन्होंने सूर्य को मुँह मे धारण कर लिया। लोगों को लगा कि उन्होंने सूर्य को खा लिया पर विवेकी व्यक्ति समझ गये कि खा नहीं लिया अपितु राहु के द्वारा खाए जाने से सूर्य को बचा लिया क्योंकि हनुमान जी अगर मुख में न लेते तो राहु मुख में ले लेता। श्री
हनुमान जी ज्ञान का फल मुख में धारण करते हैं इसका सीधा सा तात्पर्य है कि जब वेदमंत्रों तथा श्लोकों का पाठ किया जाएगा तो मुख से ही तो किया जाएगा। इसलिये कहा जा सकता है कि मुख का जितना बढिया उपयोग करना श्री हनुमान जी जानते हैं दूसरा भला क्या जानेगा।जिन्होंने जन्म लेते ही सूर्य को मुख मे धारण कर लिया।

जब दूसरी छलाँग लगाने लगे तो उस समय भगवान श्रीराम ने मुद्रिका दी और प्रभु मुद्रिका लेते ही-

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं

उसे मुख में धारण कर लेते है। इसका अभिप्राय क्या है कि सूर्य को भी मुख में धारण करते हैं और राम नाम को भी मुख में धारण कर लेते है। तात्पर्य यह है कि हनुमान जी महाराज ज्ञान (सूर्य) और भक्ति( रामनाम अंकित मुद्रिका) दोनों को मुख मे धारण करते है। मुख का इससे अच्छा सदुपयोग और क्या हो सकता है।
||जय श्री राम||

सोमवार, 26 जुलाई 2021

ईश्वर पर भरोसा रखे, वह अवश्य सही समय पर सबकुछ देगा


एक बार एक राजा था, वह जब भी मंदिर जाता, तो 2 भिखारी उसके दाएं और बाएं बैठा करते दाईं तरफ़ वाला कहता: हे ईश्वर, तूने राजा को बहुत कुछ दिया है, मुझे भी दे दे.!" बाईं तरफ़ वाला कहता: ऐ राजा.! ईश्वर ने तुझे बहुत कुछ दिया है, मुझे भी कुछ दे दे!" दाईं तरफ़ वाला भिखारी बाईं तरफ़ वाले से कहता:
ईश्वर से माँग वह सबकी सुनने वाला है,बाईं तरफ़ वाला जवाब देता: “चुप कर मुर्ख।

एक बार राजा ने अपने मंत्री को बुलाया और कहा कि मंदिर में दाईं तरफ जो भिखारी बैठता है वह हमेशा ईश्वर से मांगता है तो अवश्य ईश्वर उसकी ज़रूर सुनेगा लेकिन जो बाई तरफ बैठता है वह हमेशा मुझसे फरियाद करता रहता है, तो तुम ऐसा करो कि एक बड़े से बर्तन में खीर भर कर उसमे स्वर्ण मुद्रा डाल दो और वह उसको दे 

मंत्री ने ऐसा ही किया.. अब वह भिखारी मज़े से खीर खाते-खाते दूसरे भिखारी को चिड़ाता हुआ बोला: "हुह... बड़ा आया ईश्वर देगा..', यह देख राजा से माँगा, मिल गया ना.?" खाते खाते जब इसका पेट भर गया तो इसने बची
हुई खीर का बर्तन उस दूसरे भिखारी को दे दिया और कहा: "ले पकड़... तू भी खाले, मुर्ख"

अगले दिन जब राजा आया तो देखा कि बाईं तरफ वाला भिखारी तो आज भी वैसे ही बैठा है लेकिन दाईं तरफ वाला ग़ायब है.. राजा ने चौंक कर उससे पूछा: "क्या तुझे खीर से भरा बर्तन नहीं मिला.?"

भिखारी: "जी मिला था राजा जी, क्या स्वादिस्ट खीर थी, मैंने खूब पेट भर कर खायी.!"
राजा: फिर..?!!?"
भिखारी: "फ़िर जब मेरा पेट भर गया तो वह जो दूसरा भिखारी यहाँ बैठता है मैंने उसको दे दी, मुर्ख हमेशा कहता रहता है: ईश्वर देगा, ईश्वर देगा.! ले
खा ले।

राजा मुस्कुरा कर बोला: "अवश्य ही, ईश्वर ने उसे दे ही दिया.!"
इसलिए आप भी सदा ईश्वर पर भरोसा रखें।

जय जय श्री राधे 

शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

भगवान् श्रीराम के मृग का पीछा करने का सच


जब मारीच स्वर्णमृग के रूप में सीताजी को दिखाई दिया और उन्होंने श्रीरामजी तथा लक्ष्मणजी को उसे दिखाया। देखते ही लक्ष्मणजी ने कहा-

‘‘अहं मन्ये मारीचं राक्षसं मृगम्
अनेन निहता राम राजानः कामरूपिणा।’’ 
                                   
अर्थात् यह मृग के रूप में राक्षस मारीच आया है, ऐसा मैं मानता हूँ। इसी इच्छाधारी राक्षस ने अनेक राजाओं का वध किया है। सीताजी ने उसे जीवित पकड़ कर लाने का आग्रह किया था, न कि मारकर लाने के लिये। यदि कहें कि जीवित ही पकड़ना था, तो धनुष बाण ले जाने की क्या आवश्यकता थी? इस विषय में मेरा मानना है कि मृग को दौड़कर हाथों से नहीं पकड़ा जा सकता, बल्कि मोहनास्त्र आदि के द्वारा बांध कर ही पकड़ा जा सकता है। इस कारण धनुष बाण लेकर गये। इसके साथ ही क्षत्रिय को निरस्त्र, निःशस्त्र रहना भी नहीं चाहिये। फिर उन्हें यह आशंका थी ही कि मृग मारीच है, तब तो सशस्त्र होकर जाना अनिवार्य ही था। जब श्रीरामजी उस मृग के पीछे चलने को उद्यत होते हैं, तब उन्होंने लक्ष्मणजी से कहा-

‘‘यदि वायं यथा यन्मां भवेद् वदसि लक्ष्मण। 
मायैषा राक्षसस्येति कत्र्तव्योऽस्य वधो मया।। 
एतेन हि नृशंसेन मारीचेना कृतात्मना।
वने विचरता पूर्वं हिंसिता मुनिपुंगवाः।’’
                            
अर्थात् हे लक्ष्मण! तुम मुझसे जैसा कह रहे हो, यदि वैसा ही यह मृग हो, यदि राक्षसी माया ही हो, तो इसे मारना मेरा कर्तव्य है। Mann Mandir YouTube channel

क्योंकि इस दुष्ट ने मुनियों की हत्या की है। इससे स्पष्ट है कि श्रीरामजी ने उस जानवर को मारीच ही समझा था न कि स्वर्णमृग। हमें यह विचारना चाहिये कि लक्ष्मणजी उनके साथ सेवा हेतु ही आये थे। वे ही स्थान-स्थान पर कुटी व शय्या तैयार करते हैं, जल, कन्द, मूल, फल लाते हैं। तब यदि वह जानवर ही पकड़ना वा मारना था, तो क्या यह कार्य लक्ष्मणजी नहीं कर सकते थे? जो लक्ष्मणजी बड़े-बड़े योद्धाओं से घोर युद्ध करने में समर्थ थे, वे उस मृग को मार वा पकड़ नहीं सकते थे? तब क्यों श्रीरामजी यह साधारण काम करने हेतु स्वयं गये और लक्ष्मणजी को वहां सीताजी की रक्षार्थ नियुक्त किया? क्यों नहीं, सदैव सेवातत्पर अनुज लक्ष्मणजी को यह कार्य सौंपा? इससे स्पष्ट है कि श्रीरामजी स्थिति की गम्भीरता समझ रहे थे। मारीच के पराक्रम व माया को जानकर, लक्ष्मणजी को भेजकर, उन्हें संकट में नहीं डालना चाहते थे। उन्हें गम्भीर परिस्थितियों में अपने पौरुष का विश्वास था। इस प्रकार की परिस्थिति उस समय भी आयी थी, जब खर और दूषण ने 14 हजार राक्षसों की सेना लेकर आक्रमण कर दिया था। उस समय श्रीरामजी ने लक्ष्मणजी को युद्ध का आदेश न देकर स्वयं ही युद्ध किया था और लक्ष्मणजी को सीताजी की रक्षार्थ नियुक्त किया था। इसी प्रकार यहां भी यही परिस्थिति बनी थी। इस सब पर गम्भीरता से विचारने पर यह सिद्ध होता है कि श्रीरामजी शिकार हेतु नहीं बल्कि उसे मारीच जानकर घोर युद्ध करने गये थे। हम इस विषय की यथार्थता जानने हेतु रामायण के अन्य प्रसंगों पर भी दृष्टि डालें, तो पायेंगे कि उस काल में किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं होती थी, सिवा दुष्ट दमनार्थ युद्ध के। जिस समय महात्मा भरतजी चित्रकूट में श्रीरामजी से मिलने आते हैं, तब श्रीरामजी ने मिलते ही उन्हें कुशलक्षेम पूछते हुये सम्पूर्ण राजनीति का उपदेश किया है। उसमें एक बिन्दु आता है, जिसमें अयोध्या ‘हिंसाभिरभिवर्जितः’ कहा है (अयो. कां.100वां सर्ग, श्लोक 44)।

अर्थात् अयोध्या हिंसा से पूर्ण मुक्त थी, तब शिकार कैसे किया जा सकता है? जब श्रीराम का राजतिलक होने वाला था, तब महाराज दशरथजी ने श्रीरामजी को उपदेश देते हुये 18 व्यसनों से दूर रहने को कहा था, ये 18 व्यसन भगवान् मनुप्रोक्त कामज व क्रोधज व्यसन हैं, जिनमें शिकार खेलना राजाओं के लिये प्रथम दुव्र्यसन बताया है। तब श्रीरामजी व दशरथजी का शिकार खेलना, हिंसा करना कैसे सिद्ध हो सकता है? यदि कोई यह प्रश्न करे कि जब श्रीरामजी शिकार खेलते ही नहीं थे, तब उन्हें उपदेश देकर निषेध करने की आवश्यकता कैसे पड़ी? इसका उत्तर स्वयं दशरथजी के वचनों से ही मिल जाता है। वे कहते हैं-

‘‘कामतस्वं प्रकृत्यैव निर्णीतो गुणवानिति।
गुणवत्यपि तु स्नेहात् पुत्र वक्ष्यामि ते हितम्।।’’
                                  
अर्थात् यद्यपि तुम स्वभाव से ही गुणवान् हो और तुम्हारे विषय में सबका यही निर्णय है, तथापि मैं स्नेहवश सद्गुणसम्पन्न होने पर भी तुम्हें हित की बातें कहता हूँ। इससे स्पष्ट है कि श्रीरामजी में उपर्युक्त व्यसन नहीं होने पर भी पिता होने के नाते उपदेश करना कर्तव्य समझ कर ही ऐसा कहा था।
||जय श्री राम||

गुरुवार, 22 जुलाई 2021

राजा भर्तृहरि की कथा


पुराने जमाने में एक राजा हुए थे, भर्तृहरि। वे कवि भी थे। उनकी पत्नी अत्यंत रूपवती थीं। भर्तृहरि ने स्त्री के सौंदर्य और उसके बिना जीवन के सूनेपन पर 100 श्लोक लिखे, जो श्रृंगार शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं।

उन्हीं के राज्य में एक ब्राह्मण भी रहता था, जिसने अपनी नि:स्वार्थ पूजा से देवता को प्रसन्न कर लिया।

देवता ने उसे वरदान के रूप में अमर फल देते हुए कहा कि इससे आप लंबे समय तक युवा रहोगे। ब्राह्मण ने सोचा कि भिक्षा मांग कर जीवन बिताता हूं, मुझे लंबे समय तक जी कर क्या करना है। 

हमारा राजा बहुत अच्छा है, उसे यह फल दे देता हूं। वह लंबे समय तक जीएगा तो प्रजा भी लंबे समय तक सुखी रहेगी।

वह राजा के पास गया और उनसे सारी बात बताते हुए वह फल उन्हें दे आया।

राजा फल पाकर प्रसन्न हो गया। फिर मन ही मन सोचा कि यह फल मैं अपनी पत्नी को दे देता हूं।
वह ज्यादा दिन युवा रहेगी तो ज्यादा दिनों तक उसके सुख का लाभ मिलेगा। 

अगर मैंने फल खाया तो वह मुझ से पहले ही मर जाएगी और उसके वियोग में मैं भी नहीं जी सकूंगा। उसने वह फल अपनी पत्नी को दे दिया।

लेकिन, रानी तो नगर के कोतवाल से प्यार करती थी। 

वह अत्यंत सुदर्शन, हृष्ट-पुष्ट और बातूनी था।

अमर फल उसको देते हुए रानी ने कहा कि इसे खा लेना, इससे तुम लंबी आयु प्राप्त करोगे और मुझे सदा प्रसन्न करते रहोगे।

फल ले कर कोतवाल जब महल से बाहर निकला तो सोचने लगा कि रानी के साथ तो मुझे धन-दौलत के लिए झूठ-मूठ ही प्रेम का नाटक करना पड़ता है। 

और यह फल खाकर मैं भी क्या करूंगा। इसे मैं अपनी परम मित्र राज नर्तकी को दे देता हूं। वह कभी मेरी कोई बात नहीं टालती।

मैं उससे प्रेम भी करता हूं। और यदि वह सदा युवा रहेगी, तो दूसरों को भी सुख दे पाएगी। उसने वह फल अपनी उस नर्तकी मित्र को दे दिया। राज नर्तकी ने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप वह अमर फल अपने पास रख लिया।

कोतवाल के जाने के बाद उसने सोचा कि कौन मूर्ख यह पाप भरा जीवन लंबा जीना चाहेगा। हमारे देश का राजा बहुत अच्छा है, उसे ही लंबा जीवन जीना चाहिए। 

यह सोच कर उसने किसी प्रकार से राजा से मिलने का समय लिया और एकांत में उस फल की महिमा सुना कर उसे राजा को दे दिया।

और कहा कि महाराज, आप इसे खा लेना।

राजा फल को देखते ही पहचान गया और भौंचक रह गया। 

पूछताछ करने से जब पूरी बात मालूम हुई, तो उसे वैराग्य हो गया और वह राज-पाट छोड़ कर जंगल में चला गया। वहीं उसने वैराग्य पर 100 श्लोक लिखे जो कि वैराग्य शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं। यही इस संसार की असली वास्तविकता है।

एक व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम करता है और चाहता है  कि वह व्यक्ति भी उसे उतना ही प्रेम करे। परंतु विडंबना यह कि वह दूसरा व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम करता है।

इसका कारण यह है कि संसार व इसके सभी प्राणी अपूर्ण हैं। सब में कुछ न कुछ कमी है।  सिर्फ एक पुरषोत्तम भगवान् श्री कृष्ण ही एक मात्र पूर्ण हैं ।

एक वही हैं जो हर जीव से उतना ही प्रेम करते हैं , जितना जीव उनसे करता है 

बल्कि उससे कहीं अधिक। बस हम ही उन्हें सच्चा प्रेम नहीं करते।।

राधे राधे।।

बुधवार, 21 जुलाई 2021

जीवन का मूल्य क्या है?


एक आदमी ने एक महात्मा से पुछा जीवन का मूल्य क्या है?
महात्मा ने उसे एक पत्थर दिया और कहा जा और इस पत्थर का मूल्य पता करके आ , लेकिन ध्यान रखना पत्थर को बेचना नही है वह आदमी पत्थर को बाजार मे एक संतरे वाले के पास लेकर गया और बोला इसकी कीमत क्या है? 

संतरे वाला चमकीले पत्थर को देखकर बोला, "12 संतरे लेजा और इसे मुझे दे जा"।

आगे एक सब्जी वाले ने उस चमकीले पत्थर को देखा और कहा

एक बोरी आलू ले जा और इस पत्थर को मेरे पास छोड़ जा "।

आगे एक सोना बेचने वाले के पास गया उसे पत्थर दिखाया सुनार उस चमकीले पत्थर को देखकर बोला: 

"50 लाख में बेच दे उसने मना कर दिया तो सुनार बोला 2 करोड़ मे दे दे या बता इसकी कीमत जो माँगेगा वह दूँगा तुझे।

उस आदमी ने सुनार से कहा मेरे गुरू ने इसे बेचने से मना किया है आगे हीरे बेचने वाले एक जौहरी के पास गया उसे पत्थर दिखाया जौहरी ने जब उस बेसकीमती रुबी को देखा , तो पहले उसने रुबी के पास एक लाल कपडा बिछाया फिर उस बेसकीमती रुबी की परिक्रमा लगाई माथा टेका फिर जौहरी बोला , “कहा से लाया है ये बेसकीमती रुबी? सारी कायनात , सारी दुनिया को बेचकर भी इसकी कीमत नही लगाई जा सकती ये तो बेसकीमती है वह आदमी हैरान परेशान होकर सीधे महात्मा के पास आया अपनी आप बिती बताई और
बोला “अब बताओ भगवान , मानवीय जीवन का मूल्य क्या है?

महात्मा बोले संतरे वाले को दिखाया उसने इसकी कीमत 12 संतरे की बताई सब्जी वाले के पास गया उसने इसकी कीमत । बोरी आलू बताई आगे सुनार ने 2 करोड़ बताई और जौहरी ने इसे "बेसकीमती बताया अब ऐसा ही मानवीय मूल्य का भी है तू बेशक हीरा है..!!लेकिन, सामने वाला तेरी कीमत अपनी औकात - अपनी जानकारी- अपनी हैसियत से लगाएगा। 

हमेशा याद रखे की दुनिया में तुम्हे पहचानने वाले भी मिल जायेगे।
अपनी इज्जत हमेशा कीजिए, आप सबसे अलग हो।

मंगलवार, 20 जुलाई 2021

संचित कर्मो का फल


एक दिन एक राजा ने अपने 3 मन्त्रियो को दरबार में  बुलाया, और  तीनो  को  आदेश  दिया  के  एक  एक  थैला  ले  कर  बगीचे  में  जाएं और वहां  से  अच्छे  अच्छे  फल  (fruits ) जमा  करें   वो  तीनो  अलग  अलग  बाग़  में प्रविष्ट  हो  गए पहले  मन्त्री  ने  कोशिश  की  के  राजा  के  लिए  उसकी पसंद  के  अच्छे  अच्छे  और  मज़ेदार  फल  जमा  किए जाएँ , उस ने  काफी  मेहनत  के  बाद  बढ़िया और  ताज़ा  फलों  से  थैला  भर लिया।

दूसरे मन्त्री  ने  सोचा  राजा  हर  फल  का परीक्षण  तो करेगा नहीं , इस  लिए  उसने  जल्दी  जल्दी  थैला  भरने  में  ताज़ा , कच्चे , गले  सड़े फल  भी  थैले  में  भर  लिए तीसरे  मन्त्री  ने  सोचा  राजा  की  नज़र  तो  सिर्फ  भरे  हुवे थैले  की  तरफ  होगी  वो  खोल  कर  देखेगा  भी  नहीं  कि  इसमें  क्या  है , उसने  समय बचाने  के  लिए  जल्दी  जल्दी  इसमें  घास , और  पत्ते  भर  लिए  और  वक़्त  बचाया।

दूसरे  दिन  राजा  ने  तीनों मन्त्रियो  को  उनके  थैलों  समेत  दरबार  में  बुलाया  और  उनके  थैले  खोल  कर  भी  नही देखे  और  आदेश दिया  कि , तीनों  को  उनके  थैलों  समेत  दूर  स्थान के एक जेल  में  ३  महीने  क़ैद  कर  दिया  जाए।

अब  जेल  में  उनके  पास  खाने  पीने  को  कुछ  भी  नहीं  था  सिवाए  उन  थैलों  के तो  जिस मन्त्री ने  अच्छे  अच्छे  फल  जमा  किये  वो  तो  मज़े  से  खाता  रहा  और  3 महीने  गुज़र  भी  गए।

फिर  दूसरा  मन्त्री जिसने  ताज़ा , कच्चे  गले  सड़े  फल  जमा  किये  थे,  वह कुछ  दिन  तो  ताज़ा  फल  खाता  रहा  फिर  उसे  ख़राब  फल  खाने  पड़े , जिस  से  वो  बीमार  होगया  और  बहुत  तकलीफ  उठानी  पड़ी और  तीसरा मन्त्री  जिसने  थैले  में  सिर्फ  घास  और  पत्ते  जमा  किये  थे  वो  कुछ  ही  दिनों  में  भूख  से  मर  गया अब  आप  अपने  आप  से  पूछिये  कि  आप  क्या  जमा  कर  रहे  हो  ??

आप  इस समय जीवन के  बाग़  में  हैं , जहाँ  चाहें  तो  अच्छे कर्म जमा  करें .. चाहें  तो बुरे कर्म , कोई देखने वाला नही, सिवाय भगवान के मगर याद रहे जो आप जमा करेंगे वही आपको आखरी समय काम आयेगा  क्योंकि दुनिया क़ा राजा आपको चारों ओर से देख रहा है । 

जय जय श्री राधे कृष्ण जी

भक्त कुम्हार और श्री कृष्ण की कथा


एक बार की बात है कि यशोदा मैया प्रभु श्री कृष्ण के उलाहनों से तंग आ गई और छड़ी लेकर श्री कृष्ण की ओर दौड़ी। जब प्रभु ने अपनी मैया को क्रोध में देखा तो वह अपना बचाव करने के लिए भागने लगे।भागते-भागते श्री कृष्ण एक कुम्हार के पास पहुंचे। कुम्हार तो अपने मिट्टी के घड़े बनाने में व्यस्त था। लेकिन जैसे ही कुम्हार ने श्री कृष्ण को देखा तो वह बहुत प्रसन्न हुआ। कुम्हार जानता था कि श्री कृष्ण साक्षात् परमेश्वर हैं। तब प्रभु ने कुम्हार से कहा कि 'कुम्हार जी, आज मेरी मैया मुझ पर बहुत क्रोधित है। मैया छड़ी लेकर मेरे पीछे आ रही है। भैया, मुझे कहीं छुपा लो।

तब कुम्हार ने श्री कृष्ण को एक बडे से मटके के नीचे छिपा दिया। कुछ ही क्षणों में मैया यशोदा भी वहां आ गईं और कुम्हार से पूछने लगी - 'क्यूं  रे,कुम्हार! तूने मेरे कन्हैया को कहीं देखा है, क्या?'

कुम्हार ने कह दिया - 'नहीं, मैया ! मैंने कन्हैया को नहीं देखा।' श्री कृष्ण यह सब बातें बड़े से घड़े के नीचे छुपकर सुन रहे थे। मैया तो वहां से चली गयीं।अब प्रभु श्री कृष्ण कुम्हार से कहते हैं - 'कुम्हार जी, यदि मैया चली गई हो तो मुझे इस घड़े से बाहर निकालो।' कुम्हार बोला - 'ऐसे नहीं, प्रभु जी ! पहले मुझे चौरासी लाख यानियों के बन्धन से मुक्त करने का वचन दो।'


भगवान मुस्कुराये और कहा - 'ठीक है, मैं तुम्हें चौरासी लाख योनियों से मुक्त करने का वचन देता हूं। अब तो मुझे बाहर निकाल दो।'

कुम्हार कहने लगा - 'मुझे अकेले नहीं, प्रभु जी ! मेरे परिवार के सभी लोगों को भी चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त करने का वचन दोगे तो मैं आपको इस घड़े से बाहर निकालूंगा।'प्रभु जी कहते हैं - 'चलो ठीक है, उनको भी चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त होने का मैं वचन देता हूं। अब तो मुझे घड़े से बाहर निकाल दो।अब कुम्हार कहता है - 'बस, प्रभु जी ! एक विनती और है। उसे भी पूरा करने का वचन दे दो तो मैं आपको घड़े से बाहर निकाल दूंगा।'

भगवान बोले - 'वो भी बता दे, क्या कहना चाहते हो ?'

कुम्हार कहने लगा - 'प्रभु जी ! जिस घड़े के नीचे आप छुपे हो, उसकी मिट्टी मेरे बैलों के ऊपर लाद के लाई गई है । मेरे इन बैलों को भी चौरासी के बन्धन से मुक्त करने का वचन दो ।'भगवान ने कुम्हार के प्रेम पर प्रसन्न होकर उन बैलों को भी चौरासी के बन्धन से मुक्त होने का वचन दिया ।'

प्रभु बोले - 'अब तो तुम्हारी सब इच्छा पूरी हो गई, अब तो मुझे घड़े से बाहर निकाल दो।'

तब कुम्हार कहता है - 'अभी नहीं, भगवन ! बस, एक अन्तिम इच्छा और है । उसे भी पूरा कर दीजिए और वह यह है - जो भी प्राणी हम दोनों के बीच के इस संवाद को सुनेगा, उसे भी आप चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त करोगे । बस, यह वचन दे दो तो मैं आपको इस घड़े से बाहर निकाल दूंगा।'

कुम्हार की प्रेम भरी बातों को सुन कर प्रभु श्री कृष्ण बहुत खुश हुए और कुम्हार की इस इच्छा को भी पूरा करने का वचन दिया ।

फिर कुम्हार ने बाल श्री कृष्ण को घड़े से बाहर निकाल दिया। उनके चरणों में साष्टांग प्रणाम किया। प्रभु जी के चरण धोए और चरणामृत लिया। अपनी पूरी झोपड़ी में चरणामृत का छिड़काव किया और प्रभु जी के गले लगकर इतना रोये क़ि प्रभु में ही विलीन हो गए।

जरा सोचें, जो बाल श्री कृष्ण सात कोस लम्बे-चौड़े गोवर्धन पर्वत को अपनी इक्क्नी अंगुली पर उठा सकते हैं, तो क्या वो एक घड़ा नहीं उठा सकते थे।

लेकिन बिना प्रेम रीझे नहीं नटवर नन्द किशोर। कोई कितने भी यज्ञ करे, अनुष्ठान करे, कितना भी दान करे, चाहे कितनी भी भक्ति करे, लेकिन जब तक मन में प्राणी मात्र के लिए प्रेम नहीं होगा, प्रभु श्री कृष्ण मिल नहीं सकते।

जय श्री राधे कृष्णा