एक बार भगवान श्री कृष्ण सो रहे थे और निद्रावस्था में उनके मुख से राधा जी का नाम निकला। पटरानियों को लगा कि वह प्रभु की इतनी सेवा करती हैं परन्तु प्रभु सबसे ज्यादा राधा जी का ही स्मरण रहता है। रुक्मिणी जी एवं अन्य रानियों ने रोहिणी जी से राधा रानी व श्री कृष्ण के प्रेम व ब्रज-लीलाओं का वर्णन करने की प्रार्थना की। माता ने कथा सुनाने की हामी तो भर दी लेकिन यह भी कहा कि श्री कृष्ण व बलराम को इसकी भनक न मिले।
तय हुआ कि सभी रानियों को रोहिणी जी एक गुप्त स्थान पर कथा सुनाएंगी। वहाँ कोई और न आए इसके लिए सुभद्रा जी को पहरा देने के लिए मना लिया गया। सुभद्रा जी को आदेश हुआ कि स्वयं श्री कृष्ण या बलराम भी आएँ तो उन्हें भी अन्दर न आने देना। माता ने कथा सुनानी आरम्भ की। सुभद्रा द्वार पर तैनात थीं।
थोड़ी देर में श्री कृष्ण एवं बलराम वहाँ आ पहुँचे। सुभद्रा ने अन्दर जाने से रोक लिया। इससे भगवान श्री कृष्ण को कुछ सन्देह हुआ। वह बाहर से ही अपनी सूक्ष्म शक्ति द्वारा अन्दर की माता द्वारा वर्णित ब्रज लीलाओं को आनन्द लेकर सुनने लगे। बलराम जी भी कथा का आनन्द लेने लगे।
कथा सुनते-सुनते श्री कृष्ण, बलराम व सुभद्रा के हृदय में ब्रज के प्रति अद्भुत प्रेम भाव उत्पन्न हुआ। उस भाव में उनके पैर-हाथ सिकुड़ने लगे जैसे बाल्य काल में थे। तीनों राधा जी की कथा में ऐसे विभोर हुए कि मूर्ति के समान जड़ प्रतीत होने लगे। बड़े ध्यान पूर्वक देखने पर भी उनके हाथ-पैर दिखाई नहीं देते थे। सुदर्शन ने भी द्रवित होकर लम्बा रूप धारण कर लिया। उसी समय देवमुनि नारद वहाँ आ पहुँचे। भगवान के इस रूप को देखकर आश्चर्यचकित हो गए और निहारते रहे।
कुछ समय बाद जब तंद्रा भंग हुई तो नारद जी ने प्रणाम करके भगवान श्री कृष्ण से कहा, "हे प्रभु ! मेरी इच्छा है कि मैंने आज जो रूप देखा है, वह रूप आपके भक्त जनों को पृथ्वी लोक पर चिरकाल तक देखने को मिले। आप इस रूप में पृथ्वी पर वास करें।" भगवान श्री कृष्ण नारद जी की बात से प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि ऐसा ही होगा। कलिकाल में मैं इसी रूप में नीलांचल क्षेत्र में अपना स्वरूप प्रकट करुँगा। कलियुग आगमन के उपरान्त प्रभु की प्रेरणा से मालव राज इन्द्रद्युम्न ने भगवान श्रीकृष्ण, बलभद्रजी और बहन सुभद्राजी की ऐसी ही प्रतिमा जगन्नाथ मन्दिर में स्थापित कराईं। ||श्री राधे राधे||
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